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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन विशेषताओं के कारण चित्रों में रेखाओं, रंगों तथा अनुकूल भावों का क्रम अत्यन्त स्पष्ट परिलक्षित होता था ।
जैन चित्रकला के अंतर्गत जो चित्र लकड़ी, कपड़े तथा पत्थर पर अनेक रंगों के संयोग से उरेहे जाते थे, उन चित्रों का सामूहिक नामकरण 'लेपकम्प' है। उस समय मिट्टी, पत्थर तथा हाथीदाँत पर चित्र निर्मित किये जाते थे । चावलों के चूर्ण से भी चित्र का निर्माण करते थे। जैन ग्रन्थों से हमें 'अल्पना-चित्रों' की परम्परा का भी ज्ञान होता है, जो लोक-कला के उन्नत स्वरूप का परिचायक है । हरिवंश पुराण में केशर के रस से नाना प्रकार के चित्रों के निर्माण का उल्लेख हुआ है। इससे चित्रकला की समृद्धि का आभास होता है । पद्म पुराण में स्वर्ण के चित्रित आसन निर्मित करने का उल्लेख उपलब्ध होता है।
४ वर्गीकरण : पद्म पुराण में चित्र के दो भेद वणित हैं : प्रथम, शुष्कचित्र हैं और इसके भी दो उपभेद हैं-नाना शुष्कचित्र एवं वजित शुष्कचित्र । द्वितीय, आर्द्रचित्र-जिसे चन्दनादि के द्रव से निर्मित किया जाता था। पद्म पुराण में ही वर्णित है कि कृत्रिम और अकृत्रिम रंगों द्वारा पृथ्वी, जल तथा वस्त्र आदि के ऊपर इसकी रचना होती थी। अनेक रंगों से संयुक्त होने पर चित्र सुन्दर प्रतीत होते थे ।
चित्रकला का वर्गीकरण विषय, शैली, एवं कालक्रम आदि के आधार पर निर्धारित किया जाता है। परन्तु जैन चित्रकला में धर्माश्रय की प्रधानता के कारण उक्त प्रकार का वर्गीकरण करना सम्भव नहीं है। अतएव इसे निम्नवत् विभक्त किया जा सकता है : (१) गुहान्तर्गत भित्तिचित्र, (२) चैत्यालयान्तर्गत भित्तिचित्र, (३) ताड़पत्र चित्र, (४) कर्गल चित्र, (५) पटचित्र, (६) धूलिचित्र, (७) फुटकर
१.. महा. ७।१५४-१५५ २. वाचस्पति गैरोला-वही, पृ० ६२ ३. हरिवश ५६।४३ ४. पद्म ४०।१६ ५. शुष्कचित्रं द्विधा प्रोक्त नानाशुष्कं च वजितम् ।
आर्द्रचित्रं पुनर्नाना चन्दनादिद्रवोद्भवम् ।। पद्म २४॥३६ ६. कृत्रिमाकृत्रिमैरङ्गभूजलाम्बरगोचरम् ।
वर्णकश्लेषसंयुक्त सा विवेदाखिलं शुभा ॥ पद्म २४।३७
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