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________________ २८७ सलित कला कि मध्यमोदीच्यवा, षड्जकैशिकी, कर्मारवी एवं गान्धार पञ्चमी-ये चार जातियाँ सात स्वर वाली; षड्जा, आन्ध्री, नन्दयन्ती एवं गान्धारमोदीच्यवा--जातियाँ छः स्वर वाली और अन्य दस जातियाँ पाँच स्वर वाली होती हैं। इनमें से छः स्वर वाली को षाड्व एवं पाँच स्वर वाली को ओडव संज्ञा प्रदत्त है। उक्त जातियों के दो उपभेद हैं-शुद्ध जाति और विशुद्ध जाति। शुद्ध जाति : वह जाति है जो परस्पर संयुक्त उत्पन्न नहीं होती है, बल्कि पृथक्-पृथक् लक्षणों से युक्त होती है। विकृत जाति : यह समान लक्षणों से युक्त होती है। इसका निर्माण दो ग्रामों (षड्ज एवं मध्यम) की जातियों से होती है तथा दोनों के स्वर से आलुप्त रहती है। हरिवंश पुराण में वर्णित है कि स्वरों में मध्यम स्वर प्रधान होने के कारण उसका विनाश कभी भी नहीं होता है, जबकि अन्य स्वर विनष्ट हो सकते हैं । इसके अतिरिक्त गन्धर्व कला के समस्त भेदों में भी इसे स्वीकृत किया गया है। हरिवंश पुराण में तार, मन्द्र, न्यास, उपन्यास, ग्रह, अंश, अल्पत्व, बहुत्व, षाड्व तथा औडवित आदि दस जातियों की गणना उपलब्ध है, जिनका ज्ञान होना अनिवार्य है। वस्तुतः जाति के लक्षण ये ही हैं। जाति एवं स्वरों का सुन्दर समन्वय हरिवंश पुराण में उपलब्ध है, जो अपने ढंग का उदात्त दृष्टान्त है । [iv] मात्रिकाएँ : मात्रिकाओं का संगीत कला में प्रधान स्थान है। पद्म पुराण में व्यक्तवाक्, लोकवाक् तथा मार्ग व्यवहार मातृकाएँ कहलाती हैं। [v] मूर्च्छना : मूर्च्छना शब्द 'मूर्छ' धातु से बना है, जिसका अर्थ 'मोह' और 'समुछाय' (उत्सेध, उभार, चमकना, व्यक्त होना) है। भरत के अनुसार सात --------------- १. हरिवंश १६१८०-१८६ २. वही १६१७६ ३. वही १६१७६-१८० ४. वही १६१६६-१६७ ५. वही १६१६८-१६६ ६. वही १६१८६-२६१ ७. व्यक्तवातलोकवाग्मार्गव्यवहारश्य मातरः। पद्म २४।३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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