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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
स्वरों का क्रमानुसार प्रयोग (युक्त) ही मूर्च्छना कहलाता है। पद्म पुराण में गन्धर्व द्वारा २१ मूर्च्छना और ४६ ध्वनियों का वर्णन मिलता है, जिसमें २१ मूर्च्छना का तात्पर्य षड्ज ग्राम की २१ औडव ताने और ४६ ध्वनियों से तात्पर्य सब मूर्च्छनाओं में दी जाने वाली ४६ तानों से है । हरिवंश पुराण के अनुसार षड्ज एवं मध्यम ग्रामों की १४ मूर्च्छनाओं के षड्ज, औडव, साधारणीकृत तथा काकली के भेद से चार-चार स्वर होने से मूर्च्छनाओं के कुल ५६ स्वर होते हैं।'
मूर्च्छनाओं को चार भागों में विभाजित करते हैं। इनके विभाजन में दो मतों को मान्यता मिली है : एक मत के अनुसार मूर्च्छनाओं के भेद पूर्णा, षाड्वा, औडुवित्ता एवं साधारण हैं और दूसरे मतानुसार भी इसके चार भेद-शुद्धा, अन्तरसहिता, काकली सहिता तथा अन्तरकाकली सहिता हैं। इनमें से दुसरा मत अधिक प्रचलित है। इसका कारण है कि महर्षि भरत ने औडुवित और षाड्विक अवस्था को 'तान' और सम्पूर्ण अवस्था को 'मूर्च्छना' कहा है । मूर्च्छना का प्रधान लक्षण सप्तस्वरता है। , [vi] तान : हरिवंश पुराण में कुल ८४ तानें वर्णित हैं, इनमें पांच स्वरों से ३५ और छः स्वरों से ४६ ताने हैं । भरत के अनुसार ८४ ताने मूर्च्छनाओं पर आश्रित हैं, जिनमें ४६ षाड्व एवं ३५ औडुव हैं।'
[vii] राग : भरत ने ग्राम रागों की उत्पत्ति जाति से बताते हुए राग के विषय में निरूपित किया है कि लोक में गाया जाने वाला सभी कुछ जातियों में स्थित है । हरिवंश पुराण में नापित राग और गोपाल राग का वर्णन उपलब्ध है। १. क्रमयुक्ताः स्वराः सप्त मूर्च्छनास्त्वभिसंज्ञिताः । भरत-नाट्यशास्त्र, अध्याय
२८, पृ० ४३५ २. पद्म पुराण १७।२७८-२८० ३. हरिवंश १६१६६ ४. कैलाश चन्द्र देव बृहस्पति-भरत का संगीत-सिद्धान्त, पृ० ३६-३८ ५. हरिवंश १६१७१ ६. कैलाश चन्द्र देव बृहस्पति-वही, पृ० ४३ ७. 'जातिसम्भूतत्वाद् ग्रामरागाणाम् इति ।-कैलाश चन्द्र देव बृहस्पति-वही,
पृ० १६६, पा० टि० ३ ८. यत्किञ्चिद् गीयते तत्सर्वजातिष स्थितम् ।-वही, पृ० १६६, पा० टि० ४ ६. हरिवंश २११४६
१०. हरिवंश २११४७
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