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________________ कला और स्थापत्य २७५ वह जगती चार-चार गोपुर (द्वारों) से युक्त तीन कोटों से घिरी हुई होती थी, उसके मध्य में एक पीठिका होती थी। पीठिका तक पहुंचने के लिए सुर्वण की सोलह सीढ़ियाँ होती थीं। यह जिनेन्द्रदेव के अभिषेक के जल से पवित्र, घण्टे, चमर, ध्वजा आदि से संयुक्त होती थी, जिसकी मनुष्य, देव एवं दानव आदि पुष्पादि से पूजन करते थे। मानस्तम्भों के मूल भाग में जिनेन्द्र भगवान् की सुर्वणमयी प्रतिमायें प्रतिष्ठापित की जाती थीं। यहाँ निरन्तर वाद्य, गायन एवं नृत्य होता रहता था। जगती के मध्य भाग में तीन कटनीदार एक पीठ होता था। उसके अग्रभाग पर ही मानस्तम्भ प्रतिष्ठित होते थे, उनका मूल भाग अत्यधिक सुन्दर, सुवर्ण निर्मित एवं बहुत ऊँचे होते थे। उनके मस्तक पर तीन छत्र (इन्दध्वज) होते थे । मानस्तम्भ के समीपवर्ती क्षेत्र में स्वच्छ जल एवं विकसित कमलों से युक्त सुन्दर वापिकायें होती थीं। वापिकाओं से थोड़ी दूर पर जल, जलचर एवं जलजों से युक्त परिखा समवसरण के चारों तरफ होती थी। इसका भीतरी भू-भाग लतावन से घिरा होता था। लतावन, लताओं, छोटी-छोटी झाडियों, क्रीड़ा पर्वत पर सब ऋतुओं में पुष्पित होने वाले वृक्ष, और शय्याओं से संयुक्त लतागृह से सुशोभित होते थे। इसके भीतर की ओर कुछ ही दूर पर समवसरण को चारों ओर से घेरे हुए एक स्वर्णमय सुन्दर कोट होता था। कोट के चारों दिशाओं में बहुत ऊँचे रजत एवं पद्मराग मणि निर्मित चार गोपुर द्वार होते थे, जो उच्च शिखरों, एक सौ आठ मंगलद्रव्यों, आभूषणों सहित सौ-सौ तोरणों और नौ निधियों से युक्त होते थे । इन गोपुर द्वारों के भीतर, जो लम्बे रास्ते होते थे, उनके दोनों ओर दो-दो नाट्यशालाएँ निर्मित होती थीं। ये नाट्यशालाएँ तिमंजली (तीन-तीन खण्डों) होती थीं और सुवर्ण स्तम्भों से निर्मित, स्फटिक मणि की दीवाल एवं रत्नों के बने हुए शिखरों से संयुक्त होते थे। नाट्यशालाओं से आगे चलकर गलियों के दोनों ओर दो-दो धूपघट रखे हुए होते थे। धूपघटों से कुछ आगे मुख्य गलियों के बगल में चार-चार वन-वीथियाँ होती थीं; जिसमें अशोक, सप्तपर्ण चम्पक और आम के वृक्ष होते थे। उन वनों के मध्य में कहीं पर त्रिकोण (तिकोने) और कहीं पर चतुष्कोण (चौकोने) बावड़ियाँ होती थीं, कहीं छोटे-छोटे तालाब, कहीं कृत्रिम पर्वत, कहीं मनोहर महल, कहीं क्रीड़ा-मण्डप, कहीं अजायबघर, कहीं चित्रशालायें, कहीं नदियाँ होती थीं। अशोक वन के मध्य में अशोक नामक चैत्यवृक्ष होता था । इसके मूलभाग में चारों दिशाओं में जिनेन्द्रदेव की चार प्रतिमायें प्रतिष्ठित होती थीं। जिस प्रकार अशोक वन में अशोक नामक चैत्यवृक्ष होता था, उसी प्रकार अन्य तीन वनों में भी अपनी-अपनी जाति का एक-एक चैत्य वृक्ष होता था और उन सभी के मूलभाग में जिनेन्द्रदेव की चार-चार प्रतिमायें होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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