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________________ २७४ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन प्रकार के ध्वजाओं का प्रयोग किया जाता था । मयूर, हंस, गरुड़, माला, सिंह, हाथी, मगर, कमल, बैल और चक्र से चिन्हित ध्वजाओं का प्रयोग किया जाता था।' [iii] समवसरण : समवसरण की व्युत्पत्ति सम तथा अव उपसर्गों को पूर्व में जोड़कर सृ धातु में अन प्रत्यय लगाने से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है उत्तम रीति से बैठने का स्थान । समवसरण के लक्षण का निरूपण करते हुए महा पुराण में वर्णित है कि इसमें समस्त सुरासुर उपस्थित होकर दिव्यध्वनि के अवसर की प्रतीक्षा करते हुए बैठते थे। इसलिए जानकार गणधरादि देवों ने इसे समवसरण सदृश्य सार्थक नामकरण प्रदान किया है ।२ जैन धर्म में इसका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके निर्माण, आकार, प्रकार की अति रुचिकर विवेचना जैन पुराणों में उपलब्ध है । सम्प्रति समवसरण के कोई उदाहरण उपलब्ध नहीं होते, क्योंकि जैन धर्म की मान्यतानुसार तीर्थंकर (ये केवल कर्म-भूमि में उत्पन्न होते हैं, भोग-भूमि में नहीं) की दिव्यध्वनि समवसरण में ही उच्चरित होती थी, जिसकी रचना सौधर्म इन्द्र के आदेश से कुवेर द्वारा माया से होती थी। तीर्थंकर के प्रस्थान करते ही समवसरण विघटित हो जाता था और अन्य स्थान पर उसकी रचना पुनः की जाती थी। सूर्यमण्डल की भाँति वर्तुलाकार यह रचना एक ऐसी वास्तु-कृति के सदृश है, जिसे विशाल सोद्यान-प्रेक्षागह' या पार्क-कम-आडिटोरियम कह सकते हैं, किन्तु इसका प्रसार बारह योजन होता था।' धर्मसभा का अन्य नाम समवसरण है । जैन ग्रन्थों में समवसरण की संरचना विषयक प्रचुर सामग्री उपलब्ध है । आलोचित जैन पुराणों में से महा पुराण' में इसकी संरचना का सुन्दर वर्णन उपलब्ध होता है । इसके बाहर चारों ओर बलय के समान धूलिशाल नामक घेरा होता था। इस धूलिशाल की तुलना चहारदीवारी से किया जा सकता है । इसके बाहर की ओर चारों दिशाओं में सुवर्णमय स्तम्भों के अग्रभाग पर अवलम्बित चार तोरणद्वार निर्मित होते थे। इन्हें अलंकृत करते थे। इसमें मुख्यतः मत्स्य एवं रत्नों की मालाओं का अंकन होता था । धूलिशाल के अन्दर की ओर गलियों के बीचो-बीच प्रत्येक दिशाओं में एक-एक अत्यधिक ऊँचे एवं सुवर्ण मानस्तम्भ का निर्माण करते थे। जिस जगती पर मानस्तम्भ होते थे, १. हरिवंश ५७१४४; महा २२।२१६ २. महा ३३१७३ ३. अमलानन्द घोष-वही, पृ० ५४४ ४. तिलोयपण्णत्ति ४।७१०-६३२ ५. महा २१२।८१-३१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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