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________________ २७६ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन थीं। इन वनों के अन्त में चारों ओर एक-एक वनदेवी होती थीं, जो ऊँचे-ऊँचे चार गोपुर द्वारों, अष्टमंगलद्रव्य, संगीत, वाद्यों, नृत्य तथा रत्नमय आभरणों से युक्त तोरणों से सुशोभित होते थे । इन वेदिकाओं से आगे सुवर्णमय खम्भों पर चित्रित माला, वस्त्र, मयूर, कमल, हंस, गरुड़, सिंह, बैल, हाथी और चक्र चिन्हित दस प्रकार की ध्वजाओं की पंक्तियाँ महावीथी के मध्यभाग को अलंकृत करती थीं । प्रत्येक दिशा में १०८ ध्वजा एक भाँति की होती थीं; जिनकी चारों दिशाओं में चार हजार तीन सौ बीस ध्वजाएँ होती थीं। इन ध्वजाओं के उपरान्त अन्तःभाग में चाँदी का पूर्ववत बना हुआ बड़ा भारी कोट होता था। इसके सम्मुख मकानों की पंक्तियाँ होती थीं। महावीथियों के मध्यभाग में नौ-नौ स्तूप होते थे। इसके आगे स्वच्छ कोट होता था। कोट के चारों ओर गोपुर निर्मित होते थे। कोट से लेकर पीठ-पर्यन्त लम्बी एवं महावीथियों के अन्तराल में सोलह दीवालें हुआ करती थीं, जिससे बारह सभा विभागों का निर्माण किया जाता था । दीवालों के ऊपर रत्नमय स्तम्भों द्वारा श्रीमण्डप निर्मित होता था। श्रीमण्डप क्षेत्र में पीठिका हुआ करती थी। इनके ऊपर पीठ निर्मित होते थे। इस प्रकार वीथिका, महाविथिका, पीठिका एवं पीठ से युक्त समवसरण सभा का निर्माण कलात्मक एवं आकर्षक होता था। इसके बीच में भगवान् जिनेन्द्रदेव के विराजमान होने के स्थान पर गन्धकुटी का निर्माण होता था। इसके मध्यभाग में सिंहासन होता था, जिस पर बैठकर भगवान् उपदेश दिया करते थे। इसकी लम्बाई-चौड़ाई लगभग छः सौ धनुष एवं ऊँचाई इससे कुछ अधिक होती थी। समवसरण के निर्माण विधि का सुन्दर एवं भव्य कला का निदर्शन हरिवंश पुराण', पद्म पुराण' और पाण्डव पुराण' में उपलब्ध है । समवसरण में बारह सभायें होती थीं, इन सभाओं के लिए बारह कोठों का निर्माण किया जाता था, जिन पर क्रमशः मुनि, कल्पवासिनी देवियाँ, आर्यिकाएँ, ज्योतिष देवों की देवाङ्गनाएँ, व्यन्तर देवों की स्त्रियाँ, भवनवासी देवों की नारियाँ, ज्योतिष देव, व्यन्तर देव, भुवन वासी देव, कल्पवासी देव, मनुष्य और तिर्यञ्च के स्थान होते थे । यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि हरिवंश पुराण के अनुसार समवसरण में शूद्रों के प्रवेश पर निषेध था।" १. हरिवंश ५७।१-१६१, ७।१-१६१ २. पद्म २।१३५-१५४, २२।७७-३१२ ३. पाण्डव ६।४०-४६ .. ४. हरिवंश २७६-८६; महा २३।१६३; पद्म २११३५-१४२ ५. हरिवंश ५७।१७१-१७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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