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________________ २३२ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन श्रेष्ठ पद को प्राप्त करते हैं । इस सम्बन्ध में यह भी कथित है कि विद्या मनुष्यों का यश, कल्याण तथा मनोरथ पूर्ण करती है। इसी लिए विद्या को कामधेनु, चिन्तामणि, त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ तथा काम) का फल कथित है । विद्या को मनुष्य के जीवन का मूलाधार सिद्ध करते हुए वर्णित है कि विद्या ही मनुष्य का बन्धु, मित्र, कल्याणकारी, साथ-साथ जाने वाला धन तथा सब प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली है । जैन पुराणों के शिक्षा सम्बन्धी आदर्श उस समय के जैनेतर साक्ष्यों से भी ज्ञात होता है । डॉ० राधा कुमुद मुकर्जी का विचार है कि शिक्षा बौद्धिक एवं नैतिक उन्नति प्रदान करती है । धार्मिक एवं आध्यात्मिक जीवन में शिक्षा का विशेष महत्त्व है। डॉ० अनन्त . सदाशिव अल्तेकर का विचार है कि प्राचीन भारत में चरित्र-निर्माण, प्रतिभाशाली व्यक्तित्त्व, संस्कृति की रक्षा तथा सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों को सम्पन्न करने के लिए शिक्षा को समाज का अनिवार्य अंग माना जाता था । जैन पुराणों के परिशीलन से शिक्षा के महत्त्व का निष्कर्ष यही है कि शिक्षा शरीर, मन एवं आत्मा को समर्थ बनाते हुए अन्तर्निहित श्रेष्ठतम महान् गुणों का विकास कर अन्तर्भूत दैवी-गुणों का विकास करती है। निरन्तर स्वाध्याय से मनुष्य की अन्तर्निहित शक्तियों का प्रादुर्भूत होता है। शिक्षा से शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शुचिता, बौद्धिक प्रखरता, आध्यात्मिक दृष्टि, नैतिक बल, कर्मठता तथा सहिष्णुता की प्राप्ति होती है । सांस्कृतिक विरासत की प्राप्ति, ज्ञानार्जन, समस्याओं का समाधान, आध्यात्मिक तत्त्वों का अन्वेषण, मानसिक क्षुधा की शान्ति, कला-कौशल का परिज्ञान, आचार-विचार का परिष्कार, शाश्वत सुख की उपलब्धि, त्याग, संयम, कर्तव्यनिष्ठा, वैयक्तिक जीवन का परिष्कार तथा समाज की उन्नति शिक्षा से ही होती है। शिक्षा से मनुष्य का सर्वाङ्गीण विकास होता है। २. शिक्षा सम्बन्धी संस्कार या क्रिया : भारतीय परम्परा एवं पारम्परिक पुराणों के समान ही जैन पुराणों में भी शिक्षा विषयक संस्कारों या क्रियाओं का उल्लेख है । शिक्षा सम्बन्धी मुख्यतया अधोलिखित चार संस्कारों या क्रियाओं का वर्णन उपलब्ध होता है : (i) लिपि संस्कार (ii) उपनीति या उपनयन संस्कार (iii) व्रतचर्या संस्कार (iv) व्रतावतरण या समावर्त्तन अथवा दीक्षान्त संस्कार । इनका विस्तृत वर्णन 'संस्कार' नामक उप-अध्याय में किया गया है । यहाँ पर संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। . १. महा १६।६७-१०१ २. राधा कुमुद मुकर्जी-ऐंशेण्ट इण्डियन एजूकेशन, दिल्ली, पृ० ३६६ ३. अल्तेकर-एजूकेशन इन ऐंशेण्ट इण्डिया, बनारस, १६४८, पृ० ३२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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