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________________ २१४ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन व्यवहृत किया है। अशोक ने नगर-न्यायाधीश को 'अधिकरणिक' की संज्ञा प्रदान की है । (ii) महत्त्व एवं आदर्श : न्याय के महत्त्व पर जैन पुराणों से यथेष्ट प्रकाश पड़ता है । महा पुराण में न्याय को राजाओं का सनातन धर्म स्वीकार किया गया है। यदि राजा का दाहिना हाथ भी दुष्ट हो जाय अर्थात दुष्कर्म करे तो उसे भी काट कर शरीर से पृथक् कर देने के लिए उसे तत्पर रहना चाहिए, ऐसी व्यवस्था का निरूपण महा पुराण में उपलब्ध है। इससे राजा की न्यायप्रियता प्रतिपादित होती है। उक्त पुराण में अन्यत्र वर्णित है कि राजा को स्नेह, मोह, आसक्ति और भय आदि के कारण नीतिमार्ग का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त न्यायावलम्बी व्यक्ति को न्याय-मार्ग में बाधक स्नेह का परित्याग करना चाहिए। पुत्र से अधिक न्याय की महत्ता पर महा पुराण में बल दिया गया है। इसी पुराण में यह भी व्यवस्था निर्धारित है कि राजा को प्रजा-पालन में पूर्ण रूपेण न्यायोचित रीति का अनुकरण करना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार पालित प्रजा कामधेनु के समान उसके मनोरथों को पूर्ण करती है।" (iii) न्याय के प्रकार : महा पुराण में न्याय के दो प्रकारों का उल्लेख प्राप्य है : दुष्टों का निग्रह और शिष्ट पुरुषों का पालन ।' इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उपर्युक्त कार्यों के सिद्धार्थ ही न्याय का उपयोग है। (iv) शपथ : आलोचित महा पुराण से शपथ पर भी प्रकाश पड़ता है। गवाही (साक्षी) देते समय राजा के समक्ष धर्माधिकारी (न्यायाधीश) द्वारा कथित १. उदय नारायण राय-वही, पृ० ३७८ २. सोऽयं सनातनः क्षात्रो धर्मो रक्ष्य : प्रजेश्वरैः । महा ३८२५६ ३. दुष्टो दक्षिणहस्तोऽपि न्याये स्वस्य छेद्यो महीभुजा। महा ६७।१११ ४. महा १७।११०; तुलनीय-व्यवहारभाष्य १, भाग ३, पृ० १३२ ५. न्यायानुत्तिना युक्तं न हि स्नेहानुवर्तनम् । महा ६७।१००; तुलनीय मृच्छकटिक ६, पृ० २५६ ६ हित्वा जेष्ठं तुजं तोकम् अकरोन्न्यायमौरसम्। महा ४५।६७ ७. त्वया न्यायधनेनाङ्ग भवितव्य प्रजाधृतौ । प्रजा कामदुधा धेनु: मता न्यायेन योजिता। महा ३८।२६६ ८. न्यायश्च द्वितीयो दुष्टनिग्रह : शिष्टपालनम् । महा ३८।२५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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