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राजनय एवं राजनीतिक व्यवस्था
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शपथ को ग्रहण करनी पड़ती थी। यह प्रथा आज भी न्यायालयों में प्रचलित है। प्रसिद्ध संस्कृत नाटक मृच्छकटिक में चार प्रकार की दिव्य परीक्षाओं का उल्लेख उपलब्ध है : विष-परीक्षा, जल-परीक्षा, तुला-परीक्षा और अग्नि-परीक्षा । २
(v) अपराध एवं दण्ड : प्राचीन राजनीतिज्ञों ने राजसत्ता के अन्तिम आधार को दण्ड या बल प्रयोग विहित किया है। मनु के मतानुसार यदि राजसत्ता अपराधियों को दण्ड न दे तो 'मात्स्य-न्याय' का बोलबाला हो जायेगा । दण्ड के भय से ही लोग न्याय का अनुसरण करते हैं । जब सब लोग सोते हैं तो उस समय दण्ड उनकी रक्षा करता है। मनु ने दण्डदायक व्यक्ति को राजा नहीं स्वीकार किया है, प्रत्युत् दण्ड को ही शासक स्वीकृत किया है। कौटिल्य ने दण्डनीति के चार प्रमुख उद्देश्य निरूपित किये हैं - (१) अलब्ध की प्राप्ति, (२) लब्ध का परिरक्षण, (३) रक्षित का विवर्धन, (४) विवधित का सुपात्रों में विभाजन ।' दण्ड के विषय में इसी प्रकार का विचार अन्य जैनेतर आचार्यों ने भी व्यक्त किया है। प्राचीन आचार्यों ने विभिन्न प्रकार के अपराधों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के दण्डों की व्यवस्था का निर्धारण किया है । दण्ड का प्रयोग सीमित होना चाहिए। दण्ड न तो अत्यधिक कठोर होना चाहिए और न अत्यधिक नम्र। अपराध के अनुकूल ही दण्ड भी होना चाहिए। मनु के कथनानुसार देश, काल, शक्ति एवं विद्या को ध्यान में रखकर दण्ड का निर्धारण करना चाहिए। माता-पिता, भाई-बन्धु, पत्नी एवं पुरोहित आदि को एक सदृश अपराध के लिए दण्ड भी एक समान देने की व्यवस्था निर्धारित थी । वस्तुतः
१. समक्ष भूपतेरात्म शुद्धयर्थं शपथं च सः ।
धर्माधिकृतनिर्दिष्टं चकाराचारदूरगः ॥ महा ५६१५४; तुलनीय--मनु ८।११३ २. उदय नारायण राय-वही, पृ० ३८० ३. दण्डः शास्ति प्रजा सर्वा दण्ड स्वाभिरक्षति ।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्म 'विदुर्बुधाः ॥ मनु ८।१४ ४. स राजा पुरुषो दण्ड: स नेता शास्ता च सः । मनु ७७ ५. काणे-हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, भाग ३, पृ० ६ ६. महाभारत शान्तिपर्व १०२।५७; याज्ञवल्क्य १।३१७; नीतिसार १११८ ७. अर्थशास्त्र ११४; कामन्दक २।३७ ८. तं देश कालं च विद्यां चावेक्ष्य तत्त्वतः ।
यदाहतः सम्प्रणयेन्नरेष्वन्यायवर्तिषु ॥ मनु ७१६ ६. माता-पिता च भ्राता च भार्या चैव पुरोहितः ।
नादण्डो विद्यते राज्ञो यः स्वधर्मे न तिष्ठति ॥ महाभारत शान्तिपर्व १२११६०
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