SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजनय एवं राजनीतिक व्यवस्था २१३ हुई । यदि अपराधी चोरी की सामग्री सहित पकड़ा जाता था तो आरक्षी उसे दण्डित करता था।' __गुप्त-युग में पुलिस विभाग के साधारण कर्मचारी को 'चाट' और 'भाट' की संज्ञा से सम्बोधित करते थे। अभिज्ञानशाकुन्तल तथा मृच्छकटिक में 'रक्षिन्' शब्द पहरेदार के लिए प्रयुक्त हुआ है ।२ गांवों में रक्षकारों की नियुक्ति सुरक्षा एवं शान्ति व्यवस्था करने के लिए होती थी।' १२. न्याय-व्यवस्था : आलोचित जैन पुराणों के परिशीलन से उस समय की न्याय-व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है। जिसका विवरण अनलिखित है : (i) न्याय : स्वरूप एवं प्रकार : आलोच्य जैन पुराणों के अनुशीलन से तात्कालिक न्याय-व्यवस्था का ज्ञान उपलब्ध होता है । पद्म पुराण में वर्णित है कि राजा स्वतः न्याय करता था। वह राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। वह सूर्यास्त तक न्यायालय का कार्य करता था, तदुपरान्त वह अन्तःपुर में जाता था। महा पुराण में उल्लिखित है कि धार्मिक राजा अधार्मिक (नास्तिक) लोगों को दण्ड देता था। पद्म पुराण में 'व्यवहार' शब्द का प्रयोग वादार्थ हुआ है। जिस आसन पर राजा आसीन होकर अपना निर्णय सुनाता था, उसे 'धर्मासन' की संज्ञा से सम्बोधित किया गया है। राजा के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीश भी होते थे, जिन्हें 'धर्माधिकारी' की संज्ञा प्रदान की गई है। न्यायाधीशार्थ 'अधिकृत' और 'दण्डवर" शब्दों का प्रयोग मिलता है। जैनेतर साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साधनों से भी न्यायाधीश विषयक ज्ञान उपलब्ध होता है। संस्कृत नाटक 'मृत्छकटिक' में न्यायाधीश को 'अधिकरणिक' वर्णित किया गया है। कौटिल्य ने 'पौर-व्यावहारिक' शब्द न्यायाधीशार्थ १. महा ४६।२६३ २. उदय नारायण राय-वही, पृ० ३७३ ३. दशरथ शर्मा-अर्ली चौहान डायनेस्टीज, लखनऊ, १६५६, पृ० २०७ पद्म १०६।१५० ५. अधर्मस्थेषु दण्डस्य प्रणेता धार्मिको नपः। महा ४०।२०० ६. पद्म १०६।१५२ ७. वही १०६।१४६ ८. महा ५७ ६. वही ५६१५४ १०. हरिवंश १६०२५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy