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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
स्थान था । जिस देश में दुर्ग नहीं होते थे, शत्रु आक्रमण कर उस देश को अपने देश में सम्मिलित कर लेते थे। इनमें सेनाएँ रहा करती थीं। इनसे शत्रु के आक्रमण काल में अपनी सुरक्षा तथा सुचारु रूप से युद्ध संचालन होता था। महा पुराण में उल्लिखित है कि दुर्ग, यन्त्र, शस्त्र, जल, घोड़े, यव तथा रक्षकों से परिपूर्ण रहते थे । दुर्ग का विस्तृत वर्णन कला एवं स्थापत्य अध्याय में आगे प्रस्तुत है ।
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(iii) कोश: किसी भी देश का स्थायित्व वहाँ की लक्ष्मी ( धनसम्पत्ति ) तथा देश की सम्पन्नता पर निर्भर करता है । शास्त्रकारों ने कोश की महत्ता के दृष्टिकोण से राजा को सर्वप्रथम अपने कोश की परिपूर्णता पर ध्यानाकर्षित किया है । " प्राचीन ग्रन्थों में कोश को राज्य का मूल कथित है और इसकी सुव्यवस्था पर बल दिया गया है। जैन पुराणों के अनुसार राजाओं के समीप राजलक्ष्मी निवास करती थीं, जिससे उन्हें देश-व्यवस्था के संचालन में सुगमता होती थी। जैनाचार्यों ने राजलक्ष्मी को पापयुक्त चित्रित किया है ।" महा पुराण में उल्लिखित है कि यद्यपि राजलक्ष्मी फलवती हैं तथापि कंटकाकीर्ण भी हैं । "
(iv) मित्र : आधुनिक युग में जिस प्रकार राष्ट्रों को मित्र राष्ट्रों की आवश्यकता होती है । उन मित्र राष्ट्रों से युद्ध काल में सहयोग उपलब्ध होता है । उसी प्रकार प्राचीन काल में भी राजा के लिए मित्र राज्य भी आवश्यक था । पद्म पुराण के अनुसार युद्धकाल में विजय प्राप्तार्थ मित्र राजा का सहयोग उपलब्ध होना अनिवार्य होता था । आक्रमण के समय विजय हेतु मित्र राजाओं की आवश्यकता पड़ती थी । जैनेतर ग्रन्थों में मित्र के महत्त्व एवं गुण की विवेचना मिलती है ।"
१.
पद्म २६।४०, ४३।२८; तुलनीय - पी० सी० चक्रवर्ती - आर्ट ऑफ वार इन ऐंशेण्ट इण्डिया, ढाका, १६४१, पृ० १२७ २. दुर्गाष्यासन् यथास्थानं सातत्येनानुसंस्थितैः । यन्त्रशस्त्राम्बुयवसैन्धवरक्षकैः ।।
भूतानि
महा ५४।२४ ३. अर्थशास्त्र २२; महाभारत शान्तिपर्व ११६ । १६ कामसूत्र १३ | ३३ महाभारत शान्तिपर्व १३० । ३५; कामन्दक ३१।३३, नीतिवाक्यामृत २१।५ महा ३६।६६, पद्म २७।२४-२५
8.
५.
६. दुषितां कटकैरेनां फलिनीमपि ते श्रियम् ।
७.
पद्म १६।१, ५५।७३
८.
अर्थशास्त्र ७ ६; महाभारत शान्तिपर्व १३८ । ११० ; मनु ७।२०८; याज्ञवल्क्य १।३५२; कामन्दक ४।७४-७६, ८।५२; शुक्रनीति ४।१1८-१०
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महा ३६।६८
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