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सामाजिक व्यवस्था
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(क) मणिमध्या यष्टि : जिसके मध्य में मणि प्रयुक्त हुई हो. उसे मणिमध्या यष्टि कहते हैं । मणिमध्या यष्टि के भी तीन उपभेद हैं: प्रथम, इस प्रकार की मणिमध्यमा यष्टि को सूत्र तथा एकावली भी कहते हैं । द्वितीय, यदि इसका निर्माण विभिन्न प्रकार की सुवर्ण, मणि, मोती एवं माणिक्य से हुआ हो, तो इसे रत्नावली नाम से सम्बोधित करते हैं । तृतीय, जिस मणिमध्या यष्टि को किसी निश्चित प्रमाण वाले सुवर्ण मणि, माणिक्य और मोतियों के मध्य अन्तर देकर गुंथी जाती है उसको अपवर्तिका कहते हैं । अमरकोष में मोतियों की एक लड़ी की माला को एकावली की संज्ञा प्रदान की गयी है । २ सफेद मोती को मणि मध्या के रूप में लगाकर एकावली बनाने का उल्लेख उपलब्ध है ।
(ख) शुद्धा यष्टि : जिस यष्टि के मध्य में मणि नहीं लगायी जाती है,
उसे शुद्धा यष्टि नाम से अभिहित करते हैं ।
(ii) हार : महा पुराण के अनुसार यष्टि अर्थात् लड़ियों के समूह को हार की संज्ञाप्रदान की गयी है। हार में शुद्ध एवं कान्तिमान रत्न का प्रयोग करते थे । माला भी हार की कोटि में आता है । मुक्ता- निर्मित माला मुक्ताहार कहलाती थी । हार मोती या रत्न से गुंथित किये जाते थे । लड़ियों की संख्या के न्यूनाधिक होने से हार के ग्यारह प्रकार होते थे ।"
(१) इन्द्रच्छन्दहार जिस हार में १००८ लड़ियाँ होती थीं, उसे इन्द्रच्छन्दहार नाम से सम्बोधित करते थे । यह हार सर्वोत्तम होता था । इस हार को इन्द्र, जिनेन्द्र देव एवं चक्रवर्ती सम्राट् ही धारण करते थे ।
१.
सूत्रमेवावली सैव यष्टिः स्यान्मणिमध्यमा । रत्नावली भवेत् सैव सुवर्णमणिचित्रिता ॥ युक्तप्रमाणसौवर्णमणिमाणिक्य मौक्तिकैः ।
सान्तरं ग्रथिता भूषाभवेयुरपवर्तिका ॥ महा १६।५०-५१
२. अमरकोश २।६।१०६
३. वही २।६ । १५५
४.
महा १६।४६
५.
पद्म ३।२७७,७१२, ८५१०७, ८८ ३१ १०३।६४; महा ३।२७, ३।१५६, १६।५८७, ६३।४३४; हरिवंश ७।८७
६. हारो यष्टिकलापः स्यात् । महा १६१५५
७.
महा १६।५५
5.
१५७
rocess सहस्रं तु यतेन्द्रच्छन्दसंज्ञकः ।
स हारः परमोदारः शक्रचक्राजितेशिनाम् ।। महा १६।५६
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