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________________ १५८ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन २. विजयच्छन्दहार : जिसमें ५०४ लड़ियाँ होती थीं उसे विजयच्छन्दहार की संज्ञा प्रदान की गयी थी। इस हार का प्रयोग अर्द्धचक्रवर्ती और बलभद्र आदि पुरुषों द्वारा किया जाता था।' सौन्दर्य की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण हार होता था। ३. हार : जिस हार में १०८ लड़ियां होती थीं, वह हार की संज्ञा से सम्बोधित किया जाता था ।२ ४. देवरच्छन्दहार : यह मोतियों की ८१ लड़ियों का निर्मित हार होता था। ५. अर्द्धहार । चौंसठ लड़ियों के समूह वाले हार को अर्द्धहार की संज्ञा प्रदान की गयी है। ६. रश्मिकलापहार : इसमें ५४ लड़ियाँ होती थीं एवं इसकी मोतियों से अपूर्व रश्मि निस्सरित होती थी। अतः यह नाम सार्थक प्रतीत होता है । ७. गुच्छहार : बत्तीस लड़ियों के समूह को गुच्छहार नाम प्रदान किया गया है। ८. नक्षत्रमालाहार : सत्ताइस लड़ियों वाले मौक्तिकहार को नक्षत्रमालाहार की संज्ञा से अभिहित करते हैं। इस हार की मोतियाँ अश्वनी, भरणी आदि नक्षत्रावली की शोभा का उपहास करती थीं। इस हार की आकृति भी नक्षत्रमाला के सदृश होती थी। ___९. अर्द्धगुच्छहार : मुक्ता की चौबीस लड़ियों का हार अर्द्धगुच्छहार कहलाता है। १०. माणवहार : इस हार में मोती की बीस लड़ियाँ होती थीं। ११. अर्द्धमाणवहार : यह हार अर्द्धमाणव नाम से सम्बोधित किया जाता था, जिसमें मुक्ता की दस लड़ियाँ होती थीं। यदि अर्द्धमाणव हार के मध्य में मणि लगा होता था तो उसे फलकहार कहते थे। रत्नजटिल स्वर्ण के पाँच फलकीय १. महा १६५७ २. वही १६॥५८; हरिवंश ७।८६ ३. वही १६१५८ ४. वही १६।५८ ५. वही १६६५६ ६. महा १६५६ ७. वही १६।६० ८. वही १६१६१ ६. वही १६।६१ १०. वही १६६६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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