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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
[स] कण्ठाभूषण : स्त्री-पुरुष दोनों ही कण्ठाभरण का प्रयोग करते थे। इसके निर्माण में मात्र मुक्ता और स्वर्ण का ही प्रयोग होता था। एक ओर यह भारतीय आर्थिक समृद्धि का सूचक था तो दूसरी ओर यह भारतीय स्वर्णकारों की शिल्पकुशलता का भी परिचायक था। इस प्रकार के आभूषणों में यष्टि, हार तथा रत्नावली आदि प्रमुख हैं । यष्टि को पृथक् रूप से धारण करते थे और इससे हार भी बनाते थे ।
(i) यष्टि : लड़ियों के समूह को यष्टि कहा गया है । इस आभूषण के पाँच प्रकार-शीर्षक, उपशीर्षक, प्रकाण्ड, अवघाटक और तरल प्रबन्ध-महा पुराण में वर्णित है।'
(१) शीर्षक : जिसके मध्य में एक स्थूल मोती होता है उसे शीर्षक सम्बोधित करते हैं ।२
(२) उपशीर्षक : जिसके मध्य में क्रमानुसार बढ़ते हुए आकार के क्रमशः तीन मोती होते हैं वह उपशीर्षक कहलाता है।'
(३) प्रकाण्ड : इसे प्रकाण्ड नाम से सम्बोधित करते हैं, क्योंकि इसके मध्य में क्रमानुसार बढ़ते हुए आकार के क्रमशः पाँच मोती जटित होते हैं।'
(४) अवघाटक : जिसके मध्य में एक दीर्घाकार मणि लगा हो और उसके दोनों ओर क्रमानुसार घटते हुए आकार के छोटे-छोटे मोती जड़ें हों, उसे अवघाटक कहते हैं।
(५) तरल प्रबन्ध (तरल प्रतिबन्ध) : जिसमें सर्वत्र एक समान मोती लगे हुए हों, वह तरल प्रतिबन्ध या तरल बन्ध कहलाता है।
उपर्युक्त पाँचों प्रकार की यष्टियों के मणिमध्या तथा शुद्धा के भेदानुसार दो विभेद मिलते हैं :
१. यष्टयः शीर्षकं चोपशीर्षकं चावघाटकम् ।
प्रकाण्डकं च तरलप्रबन्धश्चेति पञ्चधा ॥ महा १६१४७ २. यष्टि: शीर्षक संज्ञा स्यात् मध्यैकस्थूल मौलिका । वही १६।५२ ३. मध्यस्त्रिभिः क्रमस्थूलैः मौक्तिरूपशीर्षकम् । वही १६॥५२ ४. प्रकाण्डकं क्रमस्थूलः पञ्चभिर्मध्यमौक्तिकैः ।। वही १६।५३ ५. मध्यादनुक्रमाद्धीनः मौक्तिकरवधाटकम् । वही १६।५३ ६. तरलप्रतिबन्धः स्यात् सर्वत्र सममौक्तिकः । वही १६।५४ ७. मणिमध्याश्च शुद्धाश्च तास्तेषां यष्टेयोऽभवन । वही १६॥४६
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