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________________ सामाजिक व्यवस्था १२१ आशा करती थीं । पराजित पति को वे तिरस्कृत करती थी, क्योंकि पड़ोसी योद्धाओं के पराजय पर उनकी पत्नियों को भी वे पसन्द नहीं करती थीं, अतः स्वपति के पराजय को वे सहन नहीं कर पाती थीं।' वीर पत्नियों के त्याग की पूर्णाहुति यहीं पर समाप्त नहीं होती, अपितु वे युद्ध में जाते समय अपने पतियों से कहती थीं कि हे नाथ ! यदि संग्राम में घायल होकर आप पीछे आयेंगे तो मुझे बड़ा अपयश होगा और उस अपयश के सुनने मात्र से ही मैं प्राण त्याग दूंगी। क्योंकि इससे मुझे वीर किंकरों की गर्वीली पत्नियाँ धिक्कारेंगी। इससे बढ़कर कष्ट की और बात क्या होगी। वीराङ्गनाओं की स्थिति पर प्रकाश डालने के लिए जैनेतर साक्ष्य से भी प्रचुर मात्रा में सामग्री उपलब्ध होती है । दशवीं-ग्यारहवीं शती में सुगन्धा एवं दिद्दा रानियाँ कुशल प्रशासक थीं। राजतरंगिणी से चुद्दा जैसी वीराङ्गनाओं पर प्रकाश पड़ता है । 'पृथ्वी-राजविजय' से ज्ञात होता है कि राजा सोमेश्वर ने अपनी मृत्यु के समय अपनी रानी कर्पूरीदेवी को अपने पुत्र पृथ्वीराज तृतीय की रक्षा करने के लिए नियुक्त किया था। गुजरात की नेकिदेवी ने ११७८ ई० में मोहम्मद गोरी के आक्रमण का सामना किया था । मेवाड़ के राजा समरसिंह की विधवा पत्नी कुमारदेवी ने कुतुबुद्दीन के आक्रमण का सामना (११६५ ई०) किया था। (vi) सेविका : आलोचित जैन पुराणों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उस समय समाज में सेविकाएँ थीं, जिनका महत्त्वपूर्ण स्थान था । सेविकाएँ कुल-परम्परा के अनुसार होती थीं। आलोच्य पुराणों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि इन्हें अध्ययन की दृष्टि से तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है : (अ) सामान्य धात्री : धात्री का समाज में महत्त्व प्रायः मातृवत् था । महा पुराण में वर्णित है कि राजपरिवारों एवं समाज के सम्पन्न व्यक्तियों के बच्चों के लालन-पालन का पूरा उत्तरदायित्व 'धात्री' या 'धाय' के ऊपर रहता था। रानी तो मात्र शिशु को जन्म देती थी।" जैन पुराणों में धात्री के सामान्य कार्यों में बच्चे को स्नान कराना, वस्त्राभूषण पहनाना, दूध पिलाना, शरीर में तेल-काजल आदि लगाना १. पद्म ५७।११ २. वही ५७।४-५ ३. यादव-वही, पृ० ७१-७२ ४. एतत्कुलक्रमायाता भृत्या: । पद्म १७।३४१ ५. महा ४३३३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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