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विघ्न-बाधाओं को पार करना पड़ा। दैव दुर्विपाक से इसी बीच मेरे पूज्य पिता पं० केदार नाथ मिश्रजी के आकस्मिक स्वर्गवास के कारण पारिवारिक उत्तरदायित्व का भार वहन करना पड़ा। मेरी विपत्तियों की परिणति मेरे शोध-प्रबन्ध के पांच अध्यायों की पूर्ण मूल पाण्डुलिपि की रेल-यात्रा के समय चोरी से हुई। इस बार तो ऐसा प्रतीत होने लगा कि प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध मेरे व्यक्तिगत जीवन की समस्याओं के नीचे दब कर अपूर्ण ही रह जायेगा। किन्तु मैंने पुनः नये सिरे से काम प्रारम्भ किया और सम्प्रति इसे ग्रन्थ रूप में विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए अपार अलौकिक आनन्द की अनुभूति हो रही है। अपनी सीमाओं के बावजूद भी यह प्रयत्न किया है कि प्रमुख जैन पुराणों की विपुल सामग्री का तत्कालीन जैन एवं जैनेतर ग्रन्थों से तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत करते हुए, पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर प्रामाणिक सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत किया जाए। एक दशक से अधिक निरन्तर अध्यवसाय के फलस्वरूप मैंने अपने अनुसंधान की उपलब्धियों को अधोलिखित नौ अध्यायों में संयोजित करने का प्रयास किया है :
प्रथम अध्याय में साक्ष्य-अनुसीलन के अन्तर्गत 'पुराण' शब्द की व्याख्या करते हुए इतिहास एवं इतिवृत्त शब्द का परिशीलन किया गया है । जैन पुराणों का उद्भव और विकास, उनका रचना-काल, विशेषताओं का वर्णन करते हुए प्रस्तुत अनुसंधान की पृष्ठभूमि एवं योजना की विवेचना की गयी है।
द्वितीय अध्याय में जैन पुराणों की सामाजिक व्यवस्था का अध्ययन किया गया है। सामाजिक व्यवस्था के व्यापक अध्ययन के लिए प्रस्तुत अध्याय को त्रयोदश उपखण्डों में विभक्त करके विवेचना की गयी है-प्रारम्भिक स्वरूप एवं कुलकर-परम्परा, वर्ण-व्यवस्था, आश्रम-व्यवस्था, संस्कार (क्रिया), विवाह, पुरुषार्थ, स्त्री दशा, भोजनपान (आहार), वस्त्र एवं वेशभूषा, आभूषण, प्रसाधन, मनोरञ्जन, धार्मिक एवं सामाजिक उत्सव ।
तृतीय अध्याय में जैन पुराणों में उपलब्ध राजनय एवं राजनीतिक व्यवस्था की समीक्षा की गयी है। इसके अन्तर्गत राजनय : स्वरूप एवं सिद्धान्त, राजा और शासन-व्यवस्था, सैन्य संगठन ये तीन उपखण्ड हैं ।
चतुर्थ अध्याय में शिक्षा और साहित्य की दृष्टि से जैन पुराणों का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । इसे शिक्षा और साहित्य उपखण्डों में विभक्त कर तत्कालीन
शिक्षा एवं साहित्य की मीमांसा की गयी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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