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सामाजिक व्यवस्था
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सब सामग्री लेकर कन्या पक्ष वाले वर के घर जाकर विवाह सम्पन्न कराते थे । इसी पुराण में अन्यत्र उल्लिखित है कि कभी-कभी कन्या के रूप पर आसक्त हो जाने पर वर स्वयं या उसका पिता कन्या के यहाँ जाकर कन्या की याचना करते थे । २
(iv) प्राजापत्य विवाह : इस विवाह को महा पुराण में विशेष महत्व दिया गया है । इसमें कन्या का विधिपूर्वक पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न करने की व्यवस्था है ।" जैन मान्यतानुसार अन्तिम कुलकर नाभिराय ने पाणिग्रहण की वर्तमान प्रथा चलाई थी । उन्होंने अपने पुत्र ऋषभदेव, जिसे जैनधर्म का प्रथम तीर्थंकर माना गया है, का विधिपूर्वक पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न किया था । *
(v) राक्षस विवाह : पी० थामस के मतानुसार जैन धर्म में राक्षस और पैशाच प्रकार के विवाहों को मान्यता प्रदान नहीं की गई है ।" परन्तु यह मत अमान्य है । जैनी सम्प्रदाय विशिष्ट आदर्श की ओर संकेत अवश्य करते हैं, किन्तु यथार्थता यदि आलोचित ग्रन्थों के परिप्रेक्ष्य में समग्रता की दृष्टि से देखा जाए तो स्थिति भिन्न दृष्टिगोचर होती है। जैन पुराणों में राक्षस विवाह के अनेक दृष्टान्त मिलते हैं । कन्या को बलात् उसके परिवार वालों को मारकर हरण कर लेते थे और अपने यहाँ लाकर विधिपूर्वक विवाह सम्पन्न करते थे ।
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३. विवाह विषयक नियम जैन पुराणों के अध्ययन से तत्कालीन समाज में प्रचलित विवाह के नियमों एवं प्रतिबन्धों पर प्रकाश पड़ता है। इसका उल्लेख अधोलिखित है :
(i) सवर्ण विवाह (अनुलोम विवाह) : विवाह विषयक नियमों और उपनियमों की दृष्टि से जैन पुराणों में तथा इनसे इतर साक्ष्यों में जहाँ कहीं समानता दृष्टिगत होती है, उनमें सवर्ण विवाह विशेषतया उल्लेखनीय है । जैन सम्प्रदाय द्वारा सम्मत विधि-निषेध में कहीं तो ब्राह्मण परम्परा से समानता है और कहीं विषमता दिखाई देती है । धर्मशास्त्रीय ब्राह्मण-व्यवस्था में सवर्ण या अनुलोम विवाह
१. पद्म ८1७८-८०
२ . वही १० । ६; हरिवंश २१।२६
३. महा ७०।११५
४.
गोकुल चन्द्र जैन - जैन संस्कृति और विवाह, गुरुदेव श्री रत्नमुनि स्मृतिग्रन्थ, आगरा, १६६४, पृ० २८३
५.
६.
पी० थामस - वही, पृ० १०८
हरिवंश ४२६६, ४४ । २३ - २४; महा ३२।१८३, ६८ ६००
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