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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
२३. दीक्षाद्य क्रिया : जो गृहत्यागी सम्यक् द्रष्टा, प्रशान्त, गृहस्थों का स्वामी तथा एक वस्त्रधारी होता है, उसके दीक्षाग्रहण करने के पूर्व जो आचरण किये जाते हैं, उन आचरणों या क्रियाओं के समूह को द्विज की दीक्षाद्य क्रिया कहते हैं।'
२४. जिनरूपता क्रिया : वस्त्रादि का परित्याग कर जिन-दीक्षा के इच्छुक पुरुष का दिगम्बर रूप ग्रहण करना जिनरूपता क्रिया कहलाती है। कातर आत्मा वाले 'जिन-रूप' धारण नहीं कर सकते, इसे केवल धीर-वीर पुरुष ही धारण कर सकते हैं।२
२५. मौनाध्ययनवृत्तत्व क्रिया : दीक्षोपरान्त तथा पारण-विधि में प्रवृत्त साधु का शास्त्र की समाप्तिपर्यन्त जो मौन रहकर अध्ययन करने में प्रवृत्ति होती है, उसे मौनाध्ययनवृत्तत्व क्रिया कहते हैं। मौन धारण करने वाले, विनय युक्त आत्मा वाले, मन-वचन-काय से शुद्ध साधु को गुरु से समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने की व्यवस्था है । क्योंकि इस विधि से भव्य जीवों के द्वारा उपासना किया हुआ शास्त्र इस लोक में उनकी योग्यता बढ़ाता है और परलोक में प्रसन्न रखता है।'
२६. तीर्थकद्भावना क्रिया : समस्त आचार शास्त्र एवं अन्य शास्त्रों के अध्ययनोपरान्त श्रुतज्ञान प्राप्त कर विशुद्ध आचरण वाले साध जिस तीर्थंकर पद की सम्यक् दर्शन आदि सोलह भावनाओं का अभ्यास करते हैं, उसे तीर्थकृद्भावना क्रिया कहा गया है।
२७. गुरुस्थानाभ्युपगम क्रिया : तदनन्तर समस्त विधाओं का ज्ञान प्राप्त कर जितेन्द्रीय साधु अपने गुरु की कृपा से गुरु-पद प्राप्त करता है, जो कि शास्त्रसम्मत है। गुरु-पद प्राप्त करने के लिए साधु में-ज्ञानी, विज्ञानी, गुरु को प्रिय, विनयी तथा धर्मात्मा के गुण का होना आवश्यक है। इसे गुरुस्थानाभ्युपगम क्रिया कहते हैं।
१. महा ३८।१५७-१५८ २. वही ३८।१५६-१६० ३. वही ३८।१६१-१६३ ४. वही ३८।१६४-१६५ ५. वही ३८।१६६-१६७
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