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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
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१६. व्रतावतरण क्रिया : समस्त विद्याओं का अध्ययन कर लेने वाले ब्रह्मचारी की व्रतावतरण क्रिया होती है । इस क्रिया में साधारण व्रतों का पालन किया जाता है, परन्तु अध्ययन के समय जो विशेष व्रत की व्यवस्था है, उसका परित्याग किया जाता है । इस क्रिया के उपरान्त उसके मधु, मांस, पाँच उदुम्बर फल और हिंसा आदि पाँच स्थूल पापों का त्याग - ये जीवनपर्यन्त रहने वाले व्रत रह जाते हैं । यह व्रतावतरण क्रिया गुरु को साक्षीपूर्वक जिनेन्द्र की पूजा कर बारह या सोलह वर्ष बाद करने की व्यवस्था है । पहले द्विजों का सत्कार कर फिर व्रतावतरण करना उचित है । व्रतावतरण के बाद गुरु की आज्ञा से वस्त्र, आभूषण, माला आदि का ग्रहण किया जाता है । इसके बाद वह अपनी आजीविका ग्रहण करता है । परन्तु जब तक आगे की क्रिया सम्पन्न नहीं होती है, तब तक काम परित्याग रूप महाव्रत का पालन करता है ।'
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१७. विवाह क्रिया : विवाह क्रिया का विस्तृत अध्ययन आगामी पृष्ठों पर पृथक से प्रस्तुत किया गया है ।
१८. वर्णलाभ क्रिया : अपने धर्म का उल्लंघन न करने के लिए विवाहित गृहस्थ की वर्णलाभ क्रिया की जाती है । पिता के घर में रहकर वह ( गृहस्थ ) स्वतन्त्र नहीं होता है, इसलिए स्वतन्त्रता प्राप्ति हेतु वर्णलाभ क्रिया की जाती है। पिता द्वारा पृथक् से धन एवं मकान पाकर स्वतन्त्र आजीविका करने को वर्णलाभ कहते हैं । इस क्रिया के समय भी पूर्व की भाँति सिद्ध प्रतिमाओं का पूजन कर, पिता एवं अन्य श्रावकों को साक्षी कर उनके सम्मुख पिता पुत्र को धनार्पण करता है और इस प्रकार कहता है कि - 'यह धन लेकर तुम अपने इस घर में पृथक् से रहो। तुम्हें दान, पूजा आदि समस्त क्रियाएँ गृहस्थ-धर्म के समान करते रहना चाहिए। जिस प्रकार हमारे पिता के द्वारा दिये हुए धन से मैंने यश और धर्म का अर्जन किया है, उसी प्रकार तुम भी यश और धन का अर्जन करो।' इस प्रकार पुत्र को समझाकर पिता उसे वर्णलाभ क्रिया में नियुक्त करता है और सदाचार का पालन करता हुआ, वह पिता के धर्म का पालन करने के लिए समर्थ होता है । २
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महा ३८।१२१ - १२६; तुलनीय - ऋग्वेद १।१५२।१, १0192519; हिरकेशिगृह्यसूत्र १६ - १३; बौधायनगृह्य सूत्र १1१४; पारस्करगृह्यसूत्र २२६, गोभिलगृह्यसूत्र ३।४-५; आश्वलायनगृह्य सूत्र बौधायन गृह्य परिभाषा ||१४|१; गोभिल ३।४।२३-३४
३।६।६-७,
३१८१६
महा ३८।१३५-१४१
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