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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
___ महा पुराण के अनुसार पत्नी के रजस्वला होने पर जब वह चौथे दिन स्नान करके शुद्ध हो जाती है तब उसे आगे कर अर्हन्तदेव की पूजा के द्वारा, मंत्रपूर्वक जो संस्कार (क्रिया) किया जाता है, उसे आधान क्रिया कहते हैं।' आधान आदि क्रियाओं में सर्वप्रथम तीन छत्र, तीन चक्र तथा तीन अग्नियाँ स्थापित करनी चाहिए। वेदि के मध्य विधिपूर्वक जिन-देव की प्रतिमा को स्थापित कर उनकी पूजा करनी चाहिए ।
महा पुराण में इस अनुष्ठान में पीठिका, जाति, निस्तारक, ऋषि, सुरेन्द्र, परमराजादि तथा परमेष्ठी से सम्बन्धित मन्त्रों का यथाविधि विनियोग करने का विधान है। गर्भाधान के समय 'सज्जातिभागी भव, सद्गृहिभागी भव, मुनीन्द्रभागी भव, सुरेन्द्रभागी भव, परमराज्यभागी भव, आर्हन्त्यभागी भव, परमनिर्वाणभागी भव' आदि मंत्रों का विनियोग करना चाहिए। इस प्रकार के अनुष्ठान को यथाविधि सम्पन्न कर पति-पत्नी को विषयानुराग में विरत होकर केवल सन्तान की कामना से सम्भोग में प्रवृत्त होना चाहिए। जैनेतर साक्ष्यों के अनुसार भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य उत्तम सन्तानों की प्राप्ति से रहा है।
१. आधानं नाम गर्भादौ संस्कारो मंत्रपूर्वकः ।
पत्नीमृतुमती स्नातां पुरस्कृत्याहदिज्यया ।। महा ३८१७० तुलनीय-बृहदारण्यकोपनिषद् ६।४।२१; आश्वलायनगृह्यसूत्र १११३।१; शांखायनगृह्यसूत्र १।१८-१६; पारस्करगृह्यसूत्र १।११; मनुस्मृति ३।२;
याज्ञवल्क्य १७६ २. महा ४०।३-४, ३८७१-७५; तुलनीय-अथर्ववेद ३।२३।२ ३. वही ४०१५-७६ ४. वही ४०१६२-६५,
विष्णुर्योनि जपेत्सूक्तं योनि स्पृष्ट्वा त्रिभिर्वती । गर्भाधानस्याकरणादस्यां जातस्तु दुष्यति ॥ तुलनीय–वीरमित्रोदय संस्कार प्रकाश, भाग १, पृष्ठ १७५ पर उत; राजबली
पाण्डेय-वही, पृ० ६६ ५. महा ३८७६ ६. एस० एन० राय-पौराणिक धर्म एवं समाज, इलाहाबाद, १६६८,
पृ० २१७-२१८
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