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सामाजिक व्यवस्था
चक्रवर्ती तथा अर्हन्त पद के बाद निर्वाण को प्राप्त करते हैं ।" इस प्रकार स्पष्ट है कि संस्कार को सम्पन्न करने पर क्रमशः अभ्युदय की उपलब्धि होती हैं ।
[३] संस्कारों के भेद-भेदान्तर: जहाँ तक संस्कारों के प्रकारों एवं भेदभेदान्तर का प्रश्न है, इनकी संख्या के विषय में भारतीय परम्परा निश्चित नहीं है । उदाहरणार्थ, गौतम, शंख और मिताक्षरा ने ४०; वैखानस ने १८ शरीर के एवं २२ यज्ञों के; अंगिरा ने २५ तथा व्यास ने षोड्स संस्कारों का उल्लेख किया है । कुछ व्यवस्थापक इनकी संख्या के विषय में मौन हैं। यद्यपि कुछ संस्कारों का उल्लेख इन्होंने अवश्य किया है, किन्तु आधुनिक समीक्षकों का ऐसा विचार है कि लोकप्रचलित सर्वमान्य संस्कारों की संख्या सोलह है । २
जहाँ तक जैनाचार्यों का प्रश्न है, उन्होंने संस्कारों (क्रियाओं) को प्रधानतया तीन वर्गों में विभक्त किया है- (अ) गर्भान्वय क्रिया, (ब) दीक्षान्वय क्रिया तथा ( स ) कर्तन्वय क्रिया | अन्त्येष्टि क्रिया को इन प्रकारों में कहीं सम्मिलित नहीं किया गया है, अपितु इसका उल्लेख पृथक्तः हुआ है ।
[ अ ] गर्भान्वय क्रिया : महा पुराण में गर्भान्विय क्रिया के अन्तर्गत अधोलिखित तिरपन क्रियाओं का उल्लेख मिलता है, जो कि गर्भ से लेकर निर्वाणपर्यन्त हैं | इसके साथ यह भी वर्णित है कि भव्य पुरुषों को सदा उनका पालन करना चाहिए और द्विजों की विधि के अनुसार इन क्रियाओं को करनी चाहिए। ये क्रियायें सम्यग्दर्शन की शुद्धता को धारण करने वाले जीवों की होती हैं । *
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१. आधान क्रिया : जैनेतर ग्रन्थ पूर्वमीमांसा में वर्णित है कि जिस कर्म के द्वारा पुरुष स्त्री में अपना बीज स्थापित करता है, उसे गर्भाधान संस्कार कहते हैं । शौनक के अनुसार इसके दो अन्य नाम भी हैं - गर्भालम्भन तथा गर्भाधान |
१.
महा ३६।२०८-२११
२. काणे - वही, पृ० १६३ - १६४; राजबली पाण्डेय - वही, पृ० २६ ३. अति निर्वाणपर्यन्ताः क्रिया गर्भादिकाः सदा ।
भव्यात्मभिरनुष्ठेयाः त्रिपञ्चाशत्समुच्चयात् ॥
यथोक्त विधिनैताः स्युः अनुष्ठेया द्विजन्मभिः । महा ३८।३१० - ३११ ४. महा ६३।३०३
५.
राजबली पाण्डेय - वही, पृ० ५८६
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