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________________ सामाजिक व्यवस्था २. प्रीति क्रिया : 'प्रिय' धातु से 'ति' प्रत्यय होने से 'प्रीति' शब्द निर्मित हुआ है। इसका अर्थ तर्पण या इच्छा है। गर्भाधान के बाद तीसरे महीने में प्रीति नामक क्रिया सम्पादित होती है । सन्तुष्ट हुए द्विज लोग इसे करते हैं। इस क्रिया में भी गर्भाधान के समान जिनेन्द्रदेव की पूजा का विधान है। अपने घर के दरवाजे पर तोरण बाँधकर दो पूर्ण कलशों की स्थापना विहित है। उस दिन से लेकर गृहस्थों को प्रतिदिन अपने वैभव के अनुसार घंटा और नगाड़ा बजवाना चाहिए।' गर्भिणी पत्नी के मनोविनोदार्थ महा पुराण में अनेक उपाय वर्णित हैं जिनमें जल-क्रीड़ा, वनविहार, कथा, गोष्ठी आदि हैं। इस क्रिया में 'लोकनाथो भव, त्रैकाल्यज्ञानी भव, त्रिरत्नस्वामी भव' मंत्रों का विनियोग करते हैं । वैदिक सीमन्तोन्नयन संस्कार की तुलना प्रीति क्रिया से की जा सकती है, क्योंकि दोनों का उद्देश्य गर्भसंरक्षण एवं स्त्री को प्रसन्न करना है। ३. सुप्रीति क्रिया : गर्भाधान के पाँचवें माह में प्रसन्न हुए उत्तम श्रावकों द्वारा सुप्रीति क्रिया सम्पन्न की जाती थी। इस क्रिया में भी मंत्र और क्रियाओं के ज्ञाता श्रावकों को अग्नि तथा देवता को साक्षी कर पूर्व कथित सभी विधियों को सम्पन्न करना चाहिए । ५ सुप्रीति क्रिया के विशेष मंत्र इस प्रकार हैं-'अवतारकल्याणभागी भव, मन्दरेन्द्राभिषेककल्याणभागी भव, निष्क्रान्तिकल्याणभागी भव, आर्हन्त्यकल्याणभागी भव, परमनिर्वाणकल्याणभागी भव ।'६ वैदिक पुंसवन-संस्कार के समान यह क्रिया है। ४. धृति क्रिया : ‘धृज' धातु भाव अर्थ में 'ति' प्रत्यय होने से 'धृति' शब्द धारण करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । गर्भ के सातवें मास में समावृत तथा अविकल १. महा ३८।७७-७६ २. वही १२।१८७ ३. वही ४०६६ ४. आश्वलायन १४।१-६; शांखायन १।२२; बौधायन ११०; गोभिल २।७।१-१२; पारस्कर १११५ ५. महा ३८।८०-८१ ६. वही ४०१६७-१०० ७. आश्वलायनगृह्यसूत्र १।१३।२-७; वैखानस ३।११; आपस्तम्बगृह्य सूत्र १४।१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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