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________________ भक्ति-पोत भक्तिभाव का सुन्दर दृढ़तम, द्रुतगामी ही नव - जलयान । पार करे शत - शत भव - वद्धित, अति दुस्तर भवसिन्धु महान ।। जिनकी रग - रग में न खोलता, भव्य - भक्ति का अभिनव रक्त । हृदय - हीन श्रद्धा - विरहित वे, हो सकते हैं क्यों कर भक्त ।। भक्ति - मधुर मधु प्रमुदित पीकर, बनिये तो कुछ दिन अलमस्त । फिर देखो, भगवान विकल हो, __ कैसे सतत लगावें गश्त ।। ज्यों पारस के स्पर्श - मात्र से, बनता अयः कनक धु तिपूर्ण । पामर भक्त विरक्त भक्तिरत, __त्यों भगवान बने अतिपूर्ण ॥ भक्तियोग सर्वोच्च योग है, अगर साथ हो उचित विवेक । सर्वनाश का बीज अन्यथा ___ अन्ध भक्ति का है अतिरेक ॥ दिनांक : २८ अप्रैल १९३६ अजित समुद्र [ ११ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001348
Book TitleKavyanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1989
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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