________________
चाह
चाह नहीं, सुखधाम स्वर्ग में देवराज बन जाने की । चाह नहीं, बन धर्म प्रवर्तक जग में पैर पुजाने की ॥ चाह नहीं, दुर्जय कोटि-भट विश्व जयी कहलाने की । चाह नहीं धनराशि अमित पा धन कुबेर पद पाने की ॥ चाह यही, अज्ञात रूप से, पड़ा रहूँ जग में भगवान ! दुखी दीन दुर्बल की खातिर होजाऊँ, हँस-हँस बलिदान ! दिनांक : १५ अक्टूबर १९३६
बसई
-
अमूल्य नर
Jain Education International
-
जन्म
उपकार करो तन से, मन से,
धन से, जन से, जग - दुःख हरो ।
अविचार, अनीति तजो सब ही,
मत वैभव का कुछ गर्व करो ॥ अपने पर खूब सचेत रहो,
फिर तो जग में अणु भी न डरो नर जन्म अमोल मिला, कुछ तो
-
परलोक हितार्थ निकाल धरो ||
- खेतड़ी, सन् १९३६
[ १२ ]
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org