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________________ स्वतंत्रता का सुख कवि : कैसा सुवर्णमय सुन्दर पिंजड़ा है, द्राक्षादि खाद्य बहु भाँति भरा पड़ा है। आनन्द है सतत, खेद जरा नहीं है, तेरे समान शुक ! अन्य सुखी नहीं है। शुक : हाँ, ठीक है, उपरि ढंग बुरा नहीं है, मत्तुल्य किन्तु दुखिया जग में नहीं है। ज्वालामुखी हृदय में फट-सा रहा है, स्वातंत्र्यहीन बन कौन सुखी रहा है। रामनिवास-जयपुर, १६६० श्रेष्ठ श्रोता सारे काम छोड़ - छाड़ त्यागी गुरुओं के पास, वाणी श्रवणार्थ जो कि नित्य - नित्य जावेंगे। शंका - समाधान द्वारा चर्चणा करेंगे खूब, अन्तर हृदय में शुद्ध देशना पचावेंगे । पीछे ना रहेंगे कभी संकट सहेंगे सभी, किन्तु जो सुना है उसे अमल में लावेंगे। वे ही श्रेष्ठ श्रोताजन करके अपार भव सागर को पार शीघ्र मुक्ति-द्वार पावेंगे। [ १० ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001348
Book TitleKavyanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1989
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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