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दया दुग्ध सिन्धो ! सदा निर्विकारी !
प्रशस्त - प्रार्थना
(
१ )
हृदागार में ज्ञान अविद्या - तमस्तोम दूर भगा दो ॥
( २ )
भले ही करें लोग निन्दा - बुराई । बनें प्राण - वैरी, न माने
भलाई ॥
दुखी दुःख - हारी ! भव- भ्रान्ति-हारी !
ज्योति जगा दो ।
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हमें स्वप्न में भी नहीं भलाई न छोड़ें, भले
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( ३ )
दुखी दीन ज्यों ही कहीं देख पावें । कि त्यों ही स्वतः अश्रु- धारा बहावें ॥ सभी भाँति आनन्द - भागी बना दें 1 खुशी से स्व-संपत्ति सारी लुटा दें ||
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कैसे ?
।।
विपद् ग्रस्त चाहे बनें क्यों न रहें धैर्य धारी हरिश्चन्द्र जंसे || प्रति - ज्ञात वाणी कभी भी न छोड़ें । निजोद्देश की ओर निर्बाध
दौड़ें ||
[ ७ ]
रोष आवे | जान जावे ॥
( ४ )
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