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( ५ ) किसी को नहीं जन्मतः नीच माने । अछूतादि मिथ्या सभी भेद जाने || घृणा पापियों से नहीं, पाप से हो । रहें स्नेह से सर्व ही भ्रात से हो ||
( ६ )
सदा मातृभू की प्रतिष्ठा पराधीनता की व्यथा से जहाँ हों वहीं सभ्यता हो
कभी स्वप्न में भी नहीं हो
( ७ )
नहीं चाहते नरक में नहीं चाहते स्वर्ग में हमारी प्रभो ! आपसे हमें तो मनुष्यत्व की चाहना है ॥
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[ ८ ]
दैत्य दैत्य
देव
बढ़ावें ।
बचावें ॥
स्वदेशी ।
विदेशी ॥
होना ।
होना ॥
प्रार्थना है ।
महेन्द्रगढ़, १९३६
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