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________________ ६० अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय नहीं है । भावों की शून्यता भी प्रमाणित है। आचार्य नागार्जुन के प्रबल समर्थक उन्हीं का शिष्य आर्यदेव था। आर्यदेव ने भी शून्य को ही परम तत्त्व कहा है, जिसको शब्द अथवा प्रमाण आदि से नहीं समझा जा सकता। शून्य के सम्बन्ध में आर्यदेव ने कहा है-वह न भाव है, न अभाव है, और न इन दोनों का संघात-विघात ही है। शून्यता को उसने निःस्वभाव कहा है, और इसी का दूसरा रूप प्रतीत्यसमुत्पाद को कहा है। इस प्रकार शून्यवाद के सम्बन्ध में बौद्ध-दार्शनिकों का मत चरम-सीमा पर पहुँच गया है। बौद्ध-दर्शन का विज्ञानवाद : बौद्ध-परम्परा एक सम्प्रदाय योगाचार मत है। यह सम्प्रदाय विज्ञानवादी दृष्टिकोण के अनुसार प्रतिबिम्ब के द्वारा बिम्ब का आनुमानिक ज्ञान असत्य एवं मिथ्या है। चित् ही एकमात्र सत्ता है, जिसके आभास को हम जगत के नाम से कहा करते हैं। इस मान्यता के अनुसार चित्त ही विज्ञान है। विज्ञानवादी-दार्शनिक बाह्य वस्तुओं के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते किन्तु वे एकमात्र चित्त के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं, क्योंकि चित्त अथवा मन के द्वारा ही हम विचार किया करते हैं। चित्त की सत्ता को सर्वोच्च मानने के कारण विज्ञानवाद का कहना है, कि शरीर अथवा जितने भी अन्य पदार्थ हैं, वे सभी हमारे मन के भीतर विद्यमान हैं। जिस प्रकार हम स्वप्न अथवा मति-भ्रम के कारण वस्तुओं को बाह्य समझ बैठते हैं, उसी प्रकार मन की साधारण अवस्था में हमें जो पदार्थ बाह्य प्रतीत होते हैं, वे वास्तव में वैसे नहीं है । दृष्टि विकार के कारण ही हम वस्तुओं की बाह्यता को देखते हैं। यदि भ्रम से हम चन्द्रमा को दो देखते हैं, तो वह हमारे वस्तुज्ञान की कमी कही जाएगी। विज्ञानवाद की मान्यता है, कि जो वस्तु बाह्य प्रतीत होती है, वह मन के विकार के कारण से होती है । अतः ज्ञान से वस्तु को भिन्न मानने का कोई कारण ही नहीं है । संसार में जो विभिन्न वस्तुएँ हैं, उनकी सत्ता चित्त, मन अथवा ज्ञान के कारण ही है । अतः ज्ञान ही सब कुछ है, और उसी का प्रतिबिम्ब बाहर में नजर आता है। अतः वास्तविक सत्ता ज्ञान की है, बाह्य वस्तुओं की नहीं। बाह्य-वस्तु स्वप्न के समान मिथ्या है, और उनकी वास्तविक स्थिति नहीं है। विज्ञानवादी विभिन्न विज्ञानों का भण्डार होने से मन को आलय-विज्ञान कहते हैं। यह आलय-विज्ञान नित्य एवं अपरिवर्तनशील नहीं है, बल्कि परिवर्तनशील और १ भारतीय-दर्शन (वाचस्पति गैरोला) पृष्ठ १७८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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