________________
भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त ९१ चित्त वृत्तियों का एक प्रवाह है। इस आलय-विज्ञान को आत्म-संयम एवं योगाभ्यास के द्वारा समझकर निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है । बौद्धदर्शन के अनुसार योग का अर्थ है-जिज्ञासा और आचार। पहले समझो और फिर कहो।'
यहां पर यह समझ लेना चाहिए, कि माध्यमिक-सम्प्रदाय का मुख्य सिद्धान्त शून्यवाद है । इसके प्रवर्तक आचार्य नागार्जुन थे । आचार्य नागार्जुन के आगमन से बौद्ध-दर्शन में नूतन-युग का सूत्रपात हुआ था। शून्यवाद के अनुसार चित्त अस्वतन्त्र है। पदार्थ की भांति विज्ञान भी क्षणिक है। शून्यवाद ही परमार्थ है। जगत की सत्ता व्यावहारिक और शून्य की सत्ता पारमार्थिक है। पारमार्थिक शून्य ही सत्य है। विज्ञानवाद योगाचार का मुख्य सिद्धान्त है । आचार्य असंग और वसुबन्धु इसके मुख्य प्रवर्तक है । असंग और वसुबन्धु ने जिस विज्ञानवाद की स्थापना की थी, उसे प्रखर तर्कवादी दिङ ना का और उसके शिष्य धर्मकीर्ति ने अपने प्रबल प्रमाणों के आधार पर विरोधी मतों से जोरदार टक्कर ली थी। विज्ञानवाद और ब्रह्मवाद :
बौद्ध-दर्शन का सिद्धान्त विज्ञानबाद के नाम से और शंकर के अद्वतवेदान्त का सिद्धान्त ब्रह्मवाद के नाम से विख्यात हैं । बौद्ध-परम्परा के चार दार्शनिक सम्प्रदाय हुए-सौत्रांतिक, वैशेषिक, योगाचार और माध्यमिक । इनमें सौत्रांतिक और वैशेषिक बौद्ध-दार्शनिक घट एवं पट आदि बाह्य पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। उन दोनों में अन्तर इतना ही है, कि सोत्रांतिक जहाँ बाह्य अर्थों को प्रत्यक्ष सिद्ध मानते हैं, वहाँ वैशेषिक बाह्य अर्थों को प्रत्यक्ष न मानकर अनुमान सिद्ध मानते हैं। किन्तु शून्यवादी और विज्ञानवादो दार्शनिक बाह्य अर्थों की सत्ता स्वीकार नहीं करते। वे दोनों क्रम से शून्यवाद और विज्ञानवाद को ही परम-सत्ता स्वीकार करते हैं, और बाह्य-सत्ता को स्वप्नवत् मिथ्या-भ्रम मानते हैं। विज्ञानवाद के अनुसार ज्ञान ही एकमात्र सत्ता है, बाह्य अर्थों का कोई अस्तित्व नहीं है। घट एवं पट आदि पदार्थ स्वप्न में दुष्ट वस्तुओं के समान केवल कल्पित एवं मिथ्या है। ज्ञान के द्वारा हम व्यावहारिक जगत के स्वप्नाविष्ट और दृष्टिगोचर, दोनों प्रकार के पदार्थों का बोध कर सकते हैं। ज्ञान के अतिरिक्त बाह्य पदार्थों का कोई अस्तित्व नहीं है । १ भारतीय-दर्शन (वाचस्पति गैरोला), पृष्ठ, १७४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org