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________________ ६२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय शंकर के ब्रह्मवाद के अनुसार इस परिवर्तनशील जगत का यथार्थ तत्त्व ब्रह्म है । यह जगत कल्पित और भ्रम मात्र है। आचार्य शंकर का कहना है, कि यह समग्र-विश्व ब्रह्म का विवर्त है। विवर्त का अर्थ हैअतात्त्विक अथवा अन्यथा प्रतीति होना । जैसे-रज्जु में सर्प की प्रतीति । शंकर का यह सिद्धान्त और उससे पूर्व भी गोड़वाद तथा मांडक्य-उपनिषद् की कारिकाओं में जगत तथा ब्रह्म का यही दृष्टिकोण विवेचित है। शंकर का यह जगत विषयक अभिमत विज्ञानवादी बौद्धों के मतानुसार स्वप्नाविष्ट तथा परिकल्पित वस्तुओं के समान भ्रम मात्र है। उसका कोई अस्तित्व नहीं है। इस दष्टि से बौद्धों के विज्ञानवाद और शंकर के ब्रह्मवाद में पर्याप्त समानता है। दोनों सिद्धान्तों को एक तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनमें कुछ अन्तर भी है । बौद्धों के विज्ञानवाद के अनुसार सब कुछ क्षणिक है । किन्तु शंकर के मतानुसार ब्रह्म नित्य है । फिर भी दोनों सिद्धान्तों में समानता इस बात में है, कि बौद्ध विज्ञान के अतिरिक्त और शंकर ब्रह्म के अतिरिक्त किसी भी पदार्थ की सत्ता स्वीकार नहीं करते । शायद इसी आधार पर शंकर को प्रच्छन्न बोद्ध कहा गया था। बौद्ध-सिद्धान्त में क्षणिकवाद भी एक विशिष्ट सिद्धान्त माना गया है । बुद्ध और परवर्ती बोद्ध-दार्शनिकों ने वस्तु की सत्ता पर गम्भीर विचार करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला कि संसार की सभी वस्तुएँ अनित्य हैं । बौद्ध-दर्शन के अनुसार बाहरी स्थूल जगत और आन्तरिक सूक्ष्म जगतदोनों ही क्षणिक हैं । बुद्ध का यह दृष्टिकोण उपनिषदों के नित्यवादी आत्मवाद के विपरीत था । आत्मवाद के अनुसार क्षण-क्षण परिवर्तनशील इस स्थूल जगत के मूल में एक सूक्ष्म तत्त्व है, जिसका नाम आत्मा है। इसी आत्मवाद को ब्रह्मवाद कहा गया है, और वेदान्त में ब्रह्म का स्वरूप सत्, चित् तथा आनन्द वताया गया है। इस ब्रह्मवाद तथा आत्मवाद के विरोध में बौद्ध-दार्शनिकों ने अनित्यतावाद तथा क्षणिकवाद की प्रतिष्ठा की थी। जैन दर्शन अनेकान्तवादो दर्शन है। उसका कहना है, कि पर्याय-दृष्टि से क्षणिकवाद सत्य हो सकता है, और द्रव्य-दृष्टि से नित्यतावाद भी सत्य है, परन्तु एकान्त क्षणिकता और एकान्त नित्यता मानना न तर्क संगत है, और न उससे किसी प्रकार का समाधान ही हो सकता है । जैन दर्शन का अनेकान्तवाद और स्याद्वाद : अनेकान्तवाद और स्याद्वाद जैन-दर्शन की अपनी एक विशिष्टता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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