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भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त १३ है। जैन-दर्शन का चरम विकास अनेकान्तवाद में होता है, और उसकी अभिव्यक्ति स्याद्वाद के द्वारा होती है। अनेकान्तवाद एक दृष्टि है, और स्याद्वाद उस दृष्टि को अभिव्यक्त करने वाली एक प्रकार की भाषा पद्धति है अथवा अनेकान्त विचार को जिस भाषा की आवश्यकता है, उसे स्याद्वाद कहा जा सकता है । यदि जैन-दर्शन का अनेकान्तवाद प्राचीन-युग में अथवा मध्य-युग में न रहता, तो दार्शनिक जगत में युग-युग से चले आने वाले विवादों का अन्त भी न होता । अनेकान्त-दृष्टि जैन-परम्परा की एक मुख्य दष्टि है। जैन-परम्परा का समग्र तत्त्व ज्ञान इस अनेकान्तवाद पर ही प्रतिष्ठित रहा है । भारतीय दार्शनिकों ने अनेकान्तवाद और स्याद्वाद को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है, परन्तु वास्तव में इन दोनों का एक अर्थ नहीं है। सप्तभंगी में से स्याद्वाद का जन्म हुआ और सप्त नयों में से अनेकान्तवाद का विकास हुआ है। अनेकान्तवाद नय मूलक है, और स्याद्वाद सप्तभंगी मूलक । अनेकान्त यह एक विचार पद्धति है, जिसके आधार पर वस्तु-तत्त्व का अथवा सत्य का प्रतिपादन किया जाता है । आलंकारिक भाषा में अनेकान्तवाद को मानस चक्षु कहा जा सकता है। जैनआचार और जैन-विचार का एक भी क्षेत्र इस प्रकार का नहीं है, जो अनेकांत. वाद से शून्य हो । विचार और आचार दोनों में अनेकांत दृष्टि ही मुख्य रही है । जिस प्रकार दार्शनिक क्षेत्र में एकान्त विचार सम्यक नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार आचार के क्षेत्र में एकान्त निषेध और एकान्त विधान भी सम्यक् नहीं कहा जा सकता। यही कारण है, कि जैन परम्परा के विद्वानों ने जहाँ अनेकान्तवाद का प्रयोग विचार के क्षेत्र में किया, वहाँ उसका प्रयोग आचार के क्षेत्र में भी किया गया। यदि अनेकान्तवाद आचार में एनं व्यवहार में प्रयुक्त न हो सके तो उसे जीवित अनेकान्तवाद कसे कहा जा सकता है ? परमार्थ और व्यवहार दोनों में अनेकान्त दष्टि का उपयोग एवं प्रयोग जैन-दार्शनिकों ने सफलता के साथ किया है, इसमें जरा भी सन्देह नहीं । जैन परम्परा के उन दार्शनिक आचार्यों ने, जिन्होंने अनेकान्तवाद और स्याद्वाद की परिभाषा एवं व्याख्या की थी, उनके सामने दो उद्देश्य थे। अपने स्वयं के विचारों में सामञ्जस्य स्थापित करना और बाहर से होने वाले आघातों का तक पूर्ण उत्तर देना। महावीर और बुद्ध :
भगवान महावीर और भगवान बुद्ध दोनों समकालीन थे, यह तो
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