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________________ ६४ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय एक ऐतिहासिक तथ्य है । दोनों का विहार, दोनों का रहन-सहन एक ही प्रान्त में रहा था । अतः यह आवश्यक था, कि एक-दूसरे के विचारों से अथवा एक-दूसरे की आचार पद्धति से उनका परिचय अवश्य रहा होगा । बुद्ध ने अपनी पद्धति से तत्त्व का निरूपण किया था, तो भगवान महावीर ने अपनी पद्धति से तत्व का निरूपण किया था। भगवान महावीर के दृष्टिकोण को अनेकान्तवाद कहा जाता है । यही जैन परम्परा का मुख्य केन्द्र बिन्दु रहा है | भगवान महावीर के समान बुद्ध ने भी इस अनेकान्तमयी दृष्टि को अपनाया था । बौद्ध साहित्य में उसे विभज्यवाद अथवा मध्यम- प्रतिपदा दृष्टि कहा जाता है । प्रत्येक दर्शन की अपनी एक विशिष्टता होती है । यह विशिष्टता ही उस परम्परा का अथवा सम्प्रदाय का केन्द्रीय विचार कहा जा सकता है । जैसे वेदान्त का मुख्य विचार अद्वैत दृष्टि रहा है । इस अद्वैत दृष्टि को लेकर वेदान्त परम्परा के विभिन्न आचार्यों ने विभिन्न प्रकार से एक ही परम सत्य की अभिव्यक्ति की है । जैन - परम्परा का मुख्य विचार अनेकान्तवाद और स्याद्वाद ही रहा है जीवन के प्रत्येक पहलू में अनेकान्त दृष्टि का प्रभुत्व रहा है । तत्त्व-ज्ञान, विचार और आचार सर्वत्र अनेकान्त दृष्टि परिव्याप्त होकर रही है । यही कारण है, कि जैन दर्शन के अनेकान्तवाद का अथवा स्याद्वाद का उसकी समकालीन बौद्ध परम्परा और वैदिक परम्परा के आचार्यों ने अनेकान्तवाद की खूब आलोचना की थी । इस आलोचना से जैनाचार्य व्याकुल नहीं हुए, for और अधिक सतेज एवं प्रखर होते रहे । अनेकान्त दृष्टि का तर्क के आधार पर विकास करने का जैनाचार्यों को अवसर मिला और उन्होंने इस अवसर से पूरा-पूरा लाभ उठाया । प्रमाण- शास्त्र और तत्त्व - शास्त्र के आधार पर अनेकान्त की व्याख्या करने वालों में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और आचार्य समन्त भद्र मुख्य रहे हैं, जिन्होंने अपने ग्रन्थों में अनेकान्त का प्रतिपादन किया, और उसकी युगानुकूल व्याख्या की । जैन दर्शन और अन्य दर्शन : भगवान महावीर और भगवान बुद्ध को विभज्यवादी कहा जाता था । सूत्रकृतांग सूत्र में विभज्यवाद का उल्लेख है, और बौद्धों के मज्झिम निकाय में भी विभज्यवाद का उल्लेख है । यह विभज्यवाद क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा जाता है, कि किसी भी प्रश्न का उत्तर विभाग करके देना, इसी को विभज्यवाद कहा जाता है । सत्य क्या है, और असत्य क्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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