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________________ भारतीय दर्शन के विशेष सिद्धान्त ८६ का नाम ही परमार्थ है। निर्वाण का दूसरा नाम ही परमार्थ सत्य है। निर्वाण को व्याख्या करते हुए आचार्य नागार्जुन ने कहा है, कि निर्वाण भाव और अभाव दोनों से अलग एक अनिर्वचनीय तत्त्व है। शून्यवाद के अनुसार समझा जाता है, कि यह सम्पूर्ण जगत शून्य है। जैसे जब हम किसी रस्सी को भ्रमवश अथवा अज्ञानवश साँप समझ बैठते हैं, तब ज्ञान वस्तु रस्सी के असत्य होने पर हम और हमारा ज्ञान दोनों स्वतः असत्य सिद्ध हो जाते हैं । इसी तर्क के आधार पर कहा जाता है, कि शून्यवादी दार्शनिकों की दृष्टि में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की कोई स्थिति न होने के कारण सब असत्य है । इस दृष्टि से संसार की सत्ता शून्य है। आचार्य नागार्जुन का यही शून्यवाद है। शून्यवाद और प्रतीत्यसमुत्पादवाद : बौद्ध-दर्शन का प्रतीत्य-समुत्पाद ही नागार्जुन का शून्यवाद है । आचार्य नागार्जुन ने कहा है, कि जो इस शून्यता को समझ लेता है, वही सब पदार्थों को समझ लेता है। और जो इसको नहीं समझ लेता है, वह कुछ भी नहीं समझता। जो सत्य है, वह निरपेक्ष है और उसका अस्तित्व किसी भी वस्तु पर निर्भर नहीं है। प्रत्येक वस्तु का यह अस्तित्व पारमार्थिक है । वस्तुओं का यही पारमार्थिक स्वरूप शून्य है, किन्तु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। नागार्जुन के मतानुसार शून्यवाद का सिद्धान्त हो प्रतीत्य-समुत्पाद कहा जाता है । जो शून्यता को समझता है, वही प्रतीत्यसमुत्पाद को समझ सकता है। प्रतीत्य-समुत्पाद का ज्ञान प्राप्त करने पर चार आर्य-सत्य ग्रहण किए जा सकते हैं, और तभी पदार्थों का यथार्थ स्वरूप समझकर निर्वाण की प्राप्ति होती है। प्रतीत्यसमुत्पाद के सम्बन्ध में राहुल सांकृत्यायन ने कहा है, कि वह विच्छिन्न प्रवाह के रूप में उत्पत्ति है। यह प्रतीत्यसमुत्पाद ही धर्म, धर्म का हेतु और धर्म का फल है। इस प्रकार प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त बौद्ध-दर्शन का एक विशिष्ट सिद्धान्त है । इसके अनुसार सभी वस्तुएं सत्य हैं। क्योंकि अच्छे अथवा बुरे रूप में उनके अस्तित्व को स्वीकार किया जाता है। जो है ही नहीं है, जो प्रतिषेध्य है, उसको सिद्ध नहीं किया जा सकता । समस्त सत्ताओं की सिद्धि शून्यता अथवा प्रतीत्यसमुत्पाद से है। किन्तु जिन प्रमाणों से भावों की वास्तविकता को सिद्ध किया जा सकता है, उन प्रमाणों को सिद्ध नहीं किया जा सकता। क्योंकि प्रमाण को सिद्ध करने के लिए प्रमाण की आवश्यकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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