SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय मोह की प्रधान शक्ति दो हैं - दर्शन-मोह और चारित्र-मोट । दर्शन मोह आत्मा को दर्शन अर्थात् स्वरूप एवं पररूप का निर्णय, विवेक नहीं होने देता। चारित्र मोह आत्मा को विवेक प्राप्त कर लेने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति नहीं करने देता। व्यवहार में भी यही देखा जाता है, कि वस्तु का यथार्थ-बोध हो जाने पर उस वस्तु को पाने अथवा छोड़ने की चेष्टा की जाती है । आध्यात्मिक विकासगामी आत्मा के लिए भी ये ही दो मुख्य कार्य हैं-स्वरूप दर्शन और तदनुसार प्रवृत्ति, अर्थात् स्वरूप में स्थित हो जाना । स्वरूप बोध हो जाने पर स्वरूप लाभ का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। अतः मोह कर्म गुणस्थान का मुख्य आधार है । गुणस्थानों का क्रम : आत्मा की अधिकतम आवृत अवस्था प्रथम गुणस्थान है, जिसको मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। इसमें मोह की दोनों क्तियों का प्रबलतम प्रभाव होने के कारण आत्मा अध्यात्म-स्थिति से सर्वथा निम्न दशा में रहता है । फिर भी उस शक्ति का अनन्तवां भाग सदा उद्घाटित रहता है। इस भूमिका में आत्मा भौतिक वैभव का उत्कर्ष कितना भी कर ले, परन्तु स्वरूप बोध की दृष्टि से शुन्य रहता है। फिर भी तीव्रतम राग-द्वष को मन्द करके मोह कर्म की प्रथम शक्ति को छिन्न भिन्न करने योग्य आत्मबल प्रकट कर लेता है । यही विकास के प्रारम्भ होने की पूर्व भूमिका है। स्वरूप बोध का मार्ग प्रशस्त होने पर भी कभी आत्मा के परिणाम ऊर्ध्वमुखी होते हैं, कभी अधोमुखी होते हैं । परिणामों में स्थिरता नहीं आने पाती है । दर्शन शक्ति के विकास के बाद में, चारित्र शक्ति के विकास का क्रम प्रारम्भ होता है । दर्शन मोह को शिथिल करके स्वरूप दर्शन कर लेने के बाद भी जब तक दूसरी शक्ति चारित्र-मोह को शिथिल न किया जाए, तब तक आत्मा की स्वरूप में स्थिति नहीं हो सकती है। इस अवस्था में भी दर्शन मोह को शमित करने वाली आत्मा स्वरूप बोध से पतित होकर पुनः अपनी प्रारम्भिक अवस्था में आ सकती है, तब पूर्व में जो कुछ भी परिणाम शूद्धि की थी, वह सब व्यर्थ हो जाती है। लेकिन जिसने दर्शन मोह का सर्वथा क्षय कर दिया है, वह आत्मा तो पूर्णता को प्राप्त करके ही विराम लेती है। गुणस्थान क्रम का अभिप्राय यही है । गुणस्थान के इन चतुर्दश भेदों में पहले की अपेक्षा दूसरे में, दूसरे की अपेक्षा तीसरे में, इस प्रकार विकास की मात्रा बढ़ती जाती है। पहले, दूसरे और तीसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy