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जैन दर्शन का अध्यात्मवाद ७३ गुणस्थान में आत्मा को शक्ति दर्शन और चारित्र शक्ति का विकास इसलिए नहीं हो पाता, कि उनमें उनके प्रतिबन्धक कारणों की अधिकता रहती है । चतुर्थ आदि गुणस्थानों से प्रतिबन्धक संस्कार मन्द होते हैं, जिससे उन-उन गुणस्थानों में शक्तियों के विकास का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। इन प्रतिबन्धक संस्कारों को कषाय कहा जाता है ।
कषायों के मुख्य रूप में चार विभाग हैं। ये विभाग काषायिक संस्कारों की फल देने की तर-तम शक्ति पर आधारित हैं। इनमें से प्रथम विभाग, दर्शन मोह और अनन्तानुबन्धी कषाय का है। शेष तीन विभाग जिनको क्रम से अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कहते हैं, चारित्र शक्ति के प्रतिबन्धक हैं। प्रथम विभाग की तीव्रता रहने पर दर्शन शक्ति का आविर्भाव नहीं हो पाता है। परन्तु जैसे-जैसे मन्दता अथवा अभाव की स्थिति बनती है, दर्शन शक्ति अभिव्यक्त होती है।
गुणस्थानों का संक्षिप्त परिचय :
दर्शन मोह और अनन्तानबन्धक कषाय का वेग उपशान्त एवं क्षय होने पर चतुर्थ गुणस्थान के अन्त में अप्रत्याख्यानावरण कषाय का संस्कार नहीं रहता है । अतः पञ्चम गुणस्थान में चारित्र शक्ति प्रकट होने लगती है, पूर्ण विकास तो नहीं होने पाता, अतः उसको दे। विरत कहा गया है । पञ्चम गुणस्थान के अन्तिम भाग में प्रत्याख्यानावरण कषाय का वेग न रहने से चारित्र शक्ति का विकास और अधिक बढ़ जाता है, जिससे इन्द्रिय विषयों से विरक्त होने पर व्यक्ति अनगार हो जाता है । वह श्रमण-जीवन अंगीकार करता है, यह विकास की षष्ठम भूमिका है। इस भूमिका में चारित्र की विपक्षी संज्वलन कषाय के रहने से चारित्र पालन में विक्षेप तो पड़ता रहता है, किन्तु उसका विकास रुकता नहीं । शुद्धि और स्थिरता में बीच बीच में बाधा आती रहती है और साधक उन विधातक कारणों से संघर्ष भी करता रहता है। इस संघर्ष में सफलता प्राप्त करने पर आत्मा सप्तम, अष्टम, नवम, दशम और एकादशम गुणस्थानों को लांघकर, द्वादशम गुणस्थान जा पहुँचता है। इसमें तो दर्शन शक्ति और चारित्र शक्ति के विपक्षी संस्कार सर्वथा क्षय हो जाते हैं, जिससे आत्मा की दोनों ही शक्ति पूर्णतया विकास पा लेती हैं। उस स्थिति में जीव जीवन मुक्त, अर्हन दशा को प्राप्त करके कृतकृत्य हो जाता है। जीवन मुक्त अवस्था त्रयोदश गुणस्थान में, और पूर्ण निष्कर्म अवस्था चतुर्दश गुणस्थान में प्राप्त
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