SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन का अध्यात्मवाद ७१ उदय क्या है ? द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से कर्म की स्थिति को पूरा करके बद्ध कर्म का फल मिलना उदय होता है । जिस कम का जितना अबाधा काल है, उसके समाप्त होते ही उस कर्म के उदय में आने के लिए कर्म दलिकों की निषेक नामक एक विशेष प्रकार की रचना होती है, और निषेक के अग्र भाग पर स्थित कर्म उदयावलिका में स्थित होकर, फल देना प्रारम्भ कर देता है। उदीरणा क्या है ? उदय में आने के समय के पूरा न होने पर भो आत्मा के करण-विशेष से, अध्यवसाय विशेष से कम का उदयावली में आकर फल देना, उदीरणा होती है। सत्ता क्या है ? बन्ध द्वारा स्वरूप प्राप्त कर्म प्रकृतियों का जीव के साथ सम्बद्ध रहना सत्ता होती है। अन्य दर्शनों में सत्ता को संचित, उदय को प्रारब्ध, और बन्ध को क्रियमाण कहा जाता है, उदीरणा जैसी स्थिति वहाँ नहीं है। गुणस्थान का लक्षण : ___ कर्मग्रन्थों में, ज्ञान आदि गुणों की शुद्धि एवं अशुद्धि के न्यून-अधिक भाव से होने वाले जीव के स्वरूप को गुणस्थान कहा है। आगमों में, गुणस्थान शब्द के लिए जीवस्थान शब्द का प्रयोग किया गया है। गूणस्थान शब्द का प्रयोग आगमोत्तर कालीन आचार्यों द्वारा रचित कर्मग्रन्थों में एवं अन्य ग्रन्थों में किया गया है। कहीं-कहीं पर जीव समास शब्द का प्रयोग भी होता है । आत्मगत गुणों के विकास क्रम को गुणस्थान कहा गया प्रतीत होता है। अतएव गुणों के आत्म-शक्तियों के स्थानों को अर्थात् आत्मा के विकास की ऋमिक अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। जैन दर्शन में गुणस्थान एक पारिभाषिक शब्द है, अन्य दर्शनों के ग्रन्थों में इस प्रकार का शब्द प्रयोग नहीं है। गुणस्थान क्रम का आधार : कर्मों में, मोह कर्म सर्व प्रधान है । जब तक मोह बलवान् और तीव्र है, तब तक अन्य सभी कर्म सबल और तीव्र बने रहते हैं। अतः आत्मा के विकास में मुख्य बाधक मोह की प्रबलता, और मुख्य सहायक मोह की निर्बलता है । इसी कारण से आत्मा के विकास की क्रमगत अवस्थाएँ, गुणस्थान, मोह शक्ति की उत्कटता, मन्दता और अभाव पर ही आधारित हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy