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________________ ७० अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय संसार में, जीवों की संख्या का पार नहीं है, जीव अनन्त हैं, कर्म के परमाणुओं की संख्या का भी आर-पार नहीं, अनन्त हैं । अतः किसी एक व्यक्ति की अपेक्षा से जीव की समस्त अवस्थाओं का वर्णन सम्भव नहीं है । क्योंकि जीव के परिणामों के प्रतिपल बदलते रहने के कारण जीव के विचार भी बदलते रहते हैं । यही कारण है, कि अध्यात्मवादी विद्वानों ने संसारस्थ जीवों को उनकी आभ्यन्तर शुद्धि-जन्य उत्क्रान्ति और अशुद्धि जन्य अपक्रान्ति के आधार पर, उनका वर्गीकरण किया है । इस पद्धति को शास्त्रीय भाषा में गुणस्थान क्रम, लेश्या-विचार और ध्यान-मार्ग कहा गया है । जैन परम्परा के दार्शनिक विद्वानों ने जीव कर्म सम्बन्ध, गुणस्थान, लेश्या और ध्यान पर गम्भीरता से विचार किया है। वस्तुतः अध्यात्मवाद के मुख्य एवं आधारभूत तत्त्व भी इन्हें ही माना गया है। गुणस्थान, जीव के होते हैं, लेश्या, जीव के होती है, ध्यान जीव के होते हैं । ये सब संसारस्थ जीव के होते हैं । मुक्तिस्थ जीवों में न गुणस्थान हैं, न लेश्या हैं, और न ध्यान हैं । क्योंकि उन जीवों के कर्म का सर्वथा तथा सर्वदा अभाव रहता है । वहाँ पूर्ण विकास है, वहाँ अविकास है ही नहीं। अध्यात्मवाद को समझने तथा समझाने के लिए, इनको समझना परम आवश्यक है। अध्यात्मवाद और गुणस्थान : गुणस्थान को परिभाषित करने के पूर्व यह अधिक उपयोगी सिद्ध होगा, कि उसकी पृष्ठ भूमिका को पहले समझा जाए । मोहकर्म की मुख्यता के कारण, गुणस्थान का आरोहण-अवरोहण उसकी तर-तम अवस्था पर आधृत है । कर्म की चार अवस्थाएं होती हैं, जैसे कि बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता । अभिनव कर्मों के ग्रहण को बन्ध कहा है। स्वभावतया जीव अमूर्त होने पर भी संसारी जीव शरीर-धारी होने से कथंचित् मूर्त भी है, उस दशा में कषाय और योग के निमित्त से अनादि काल से ही मूर्त कम पुद्गलों को ग्रहण करता रहा है । जीव तथा कम का संयोग बन्ध है । बन्ध दो प्रकार का है, प्रथम सांपरायिक बन्ध और द्वितीय योग-प्रत्ययिक बन्ध । प्रथम कषाय से और द्वितीय योग से होता है। कषाय मोह कम का भेद है । सातावेदनीय कर्म प्रकृति तो योग से बँधती हैं, और असाता वेदनीय कर्म-प्रकृति के बन्ध में कषाय के सहयोग की भी आवश्यकता रहती है, कषाय प्रेरक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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