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कर्म तत्त्व मीमांसा ५७ भाव कम नहीं होते । बिना भाव कम के द्रव्य कम नहीं होते । द्रव्य में और भाव में परस्पर कार्य-कारण भाव है। भाव चेतन है, और द्रव्य अचेतन । यहाँ पर भाव से तात्पर्य है, जीव के विकारी भाव । जैसे कि काम, क्रोध एवं भय आदि हैं। द्रव्य का अर्थ है, भौतिक तत्त्व । जिसमें कर्म रूप में परिणत होने की योग्यता हो, परन्तु चेतना न हो। जैसे कि कामण वर्गणा के पुद्गल-परमाणु-
पुञ्ज । यह द्रव्य कम है। जैन दर्शन में कर्म शब्द का अर्थ किया है, कि जीव की प्रत्येक क्रिया के साथ में जीव की ओर आकर्षित होने वाले कर्म परमाणु । कर्म परमाणु योग से जीव की ओर आकर्षित होते हैं। योग का अर्थ है-मानसिक व्यापार, वाचिक व्यापार और कायिक व्यापार । योग एक क्रिया है, एक व्यापार है, जो तीन प्रकार के है-मन का चिन्तन, वाग् का वचन और काय की हल-चल । योग से आत्म प्रदेशों में एक प्रकार का कम्पन होता है, इसको जैन दर्शन की परिभाषा में योग कहा गया है। फिर तो अज्ञान, राग-द्वेष और मोह रूप भावों का निमित्त पाकर, कषाय से जीव बद्ध हो जाता है अतः योग और कषाय बन्ध के कारण हैं। कर्म परमाणुओं को जीव तक लाने का कार्य जीव की योग-शक्ति करती है, और उसके साथ बन्ध कराने का कार्य कषाय करता है, जो जीव के राग-द्वेष रूप भाव करते हैं । इन विकारी भावों को जीव का विभाव कहा जाता है। अतः जीव की योग-शक्ति और कषाय भाव ही बन्ध का कारण है। कषाय के नष्ट हो जाने पर भी योग के रहने तक जीव में कम रज का आस्रवन तो होता है, किन्तु कषाय का अभाव होने से कम रज जीव से चिपकते नहीं। योग को पवन की, कषाय को गोंद की, जीव को भित्ति की और कर्म परमाणुओं को धूलि की उपमा दी जा सकती है। बन्ध के प्रकार : ___योग और कषाय से जीव के साथ कम -पुद्गलों का बन्ध होता है । वह चार प्रकार का है, जो इस प्रकार का होता है
१. प्रकृति बन्ध । २. प्रदेश बन्ध । ३. स्थिति वन्ध । ४. अनुभाग बन्ध ।
प्रकृति का अर्थ होता है, स्वभाव-बद्ध-कर्म परमाणुओं में, अनेक प्रकार के स्वभाव का उत्पन्न हो जाना, प्रकृति बन्ध होता है। उनकी संख्या
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