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________________ ५८ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय का नियत होना-प्रदेश बन्ध है। उनमें काल की मर्यादा का होनास्थिति बन्ध है। उनमें फल देने की शक्ति होना अनुभाग बन्ध है । प्रकृति स्वभाव को, प्रदेश रत्न संचय को, स्थिति काल मर्यादा को और अनुभाव विपाक को कहा गया है। प्रकृति बन्ध के प्रकार : कर्म के अनेक प्रकार से अनेक भेद हो सकते हैं । परन्तु कर्म के मूल भेद आठ ही होते हैं, जो इस प्रकार हैं १. ज्ञानावरण । २. दर्शनावरण। ३. वेदनीय। ४. मोहनीय । ५. आयुष् । ६. नाम । ७. गोत्र । ८. अन्तराय। ज्ञानावरण, जीव के ज्ञान गुण का घातक है। दर्शनावरण, जीव के दर्शन गुण का घातक है। आवरण का अर्थ है-आच्छादन। किसी वस्तु को ढंक देना । ये दोनों कम जोव के ज्ञान और दर्शन को ढांकते हैं। चेतन जीव की चेतना दो प्रकार की है-ज्ञान चेतना और दर्शन चेतना। वस्तु का विशेष परिबोध और उसका सामान्य परिबोध। ये कर्म, दोनों को प्रकट होने से रोकते हैं। अतः इन दो कर्मों को आवरण कहा है। वेदनीय कम, जीव को सुख और दुःख का वेदन कराता है, अनुभव कराता है । इस कर्म के कारण ही जीव सुखी एवं दुःखी होता है। मोहनीय कर्म, जीव को मुग्ध बना देता है, जिसके कारण उसको स्व-पर का भान नहीं हो पाता । मोह के कारण जीव को न तो सच्चा श्रद्धान हो पाता है, और न सच्चा चारित्र ही। क्योंकि वह जीव के श्रद्धान गुण का और चारित्र का घातक है। आयूष्य कर्म जोव को संसार में रोक कर रखता है। आयुष्य कम का उदय जीवन है, और उसका क्षय मरण । कम के आठ भेदों में से एक भेद नामकर्म है, जिसके कारण जीव को शरीर, इन्द्रिय और मन की प्राप्ति होती है। शरीर के अंग उपांग और अंग-उपांगों की रचना का भी कारण यहो है। गोत्र कर्म के कारण जीव का जन्म, अधम कुल में और उत्तम कुल में होता है, इनको नीच कुल तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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