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________________ ५६ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय अतः उसे कर्म संज्ञा प्रदान की है। पुद्गल द्रव्य को अनेकविध वर्गणाओं में से एक वर्गणा कार्मण भी है, जो समस्त लोक में परिव्याप्त है । जीव की क्रिया का निमित्त पाकर, वह कामण वर्गणा कम रूप में परिणत हो जाती है । जब राग-द्वोष से अभिभूत जीव शुभ एवं अशुभ क्रिया करता है, तब कम-रज ज्ञानावरण आदि रूप से उसमें प्रवेश करता है । अतएव कम एक मूर्त पदार्थ है, जो जीव के एक-एक प्रदेश के साथ बद्ध हो जाता है । अमूर्त जीव के साथ मूर्त कम बन्ध कैसे होता है । यह बहुत ही पुरातन काल से परिचर्चा का विषय रहा है। समाधान भी प्राचीन काल से होता रहा है, जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि है। किसी समय जीव सर्वथा परिशुद्ध रहा हो, बाद में कम बन्ध हुआ हो, इस प्रकार की अवधारणा जैन दर्शन में कभी रही नहीं। क्योंकि संसारी जीव अनादि काल से ही मूर्त कर्मों से बद्ध रहा है । अतः वह भी कथंचित् मूर्त जैसा हो गया है । संसारी दशा में, द्रव्य बन्ध से भाव बन्ध और भाव बन्ध से द्रव्य बन्ध, प्रतिक्षण होता ही रहता है, यह बन्ध का परिचक्र अभव्य जीव की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है, और भव्य जीव की अपेक्षा से अनादि-सान्त है। कर्म और फल : जीव और पुद्गल में क्रिया होती है । जिस में क्रिया हो, वह क्रियावान कहा जाता है । क्रिया बिना फल के नहीं होती, फल कैसा भी हो सकता है-शुभ तथा अशुभ । जैसा कम होता है, उसका परिणाम भी वैसा ही होता है। जैन दर्शन की मान्यता है, कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है, लेकिन उसके फल भोग में स्वतन्त्र नहीं। जीव कम करे, न करे, उसकी इच्छा पर निर्भर है। परन्तु करने पर उसका फल उसे भोगना पड़ेगा । फल से बचने का उपाय नहीं है, उपाय हो सकता है, कर्म करने से बचने का । जलती अग्नि में हाथ डालना, न डालना, डालने वाले की इच्छा पर निर्भर है, किन्तु डालने पर जलने से बच निकलना, सम्भव नहीं है। अतः जीव कम करने में स्वतन्त्र है, लेकिन उसके फल-भोग में परतन्त्र रहता है। कर्म के भेद : __कर्म के दो भेद हैं - द्रव्य कर्म और भाव कम । जीव से संबद्ध कर्म पुद्गल को द्रव्य कम कहते हैं। द्रव्य कर्म के प्रभाव से होने वाले जीव के राग-द्वेषात्मक भावों को भाव कर्म कहते हैं । द्रव्य कम, भाव कर्म का कारण है, और भाव कम, द्रव्य कम का । बिना द्रव्य कम के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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