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जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा
भोक्ता भी है । निश्चय नय से जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप निज गुणों काही कर्ता है, और भोक्ता है । जो दुःख तथा सुख का वेदक है । जो चेतनावन्त है, और जो उपयोगवान है, उसे जिन भगवान ने जीव कहा है । जो द्रव्य और भाव प्राणों को धारण करता है, वह जीव है । जो जीवित था, जो जीवित है, और जो जीवित रहेगा, वह जिन शासन में जीव कहा जाता है ।
अजीब :
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जिस में ये लक्षण उपलब्ध नहीं होते, वह अजीव है शून्य है, जिसमें चेतना नहीं है, वह अजीव है । जो दुःख तथा सुख का वेदक नहीं है, वह जिन शासन में अजीव कहा गया है। जिसमें न ज्ञान हो, न दर्शन हो और न चारित्र हो - जिन भगवान ने उसे अजीव कहा है । अजीव प्राणवन्त नहीं होता है । अजीव में द्रव्य प्राण तथा भाव प्राण नहीं होते । अजीव का अर्थ है - अचेतन, जड़ ।
पुण्य :
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जिस के कारण से जीव, शुभ कर्म के पुद्गलों का संचय करता है, वह पुण्य होता है । जिसके उदय से जीव को सुख की अनुभूति हो, वह पुण्य कहा जाता है, पुण्य से सुख का वेदन होता है ।
पाप :
जो उपयोग
जिसके कारण से अशुभ कर्म के पुद्गल संचय होता है, वह पाप होता है । जिस के उदय से जीव को दुःख की अनुभूति हो, वह पाप कहा जाता है, पाप से दुःख का वेदन होता है ।
आस्रव :
जो नूतन कर्मों के बन्ध में कारणभूत होता है, जो नूतन कर्मों के प्रवाह के आने का द्वार बनता है, जिन-शास्त्र में उसे आस्रव कहा जाता है । जो अशुभ एवं शुभ कर्मों के उपादान में हेतु भूत है, जिन भगवान ने उसको आस्रव कहा है, कर्म-रज का आना कहा है ।
संवर :
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जिसके कारण अभिनव कर्मों के आने का द्वारा बन्द हो जाता है, वह संवर होता है । आस्रव के निरोध को जिन शास्त्र में संवर कहा गया है । संवर से कर्मों के प्रवाह के द्वार का अवरोध हो जाता है, जिससे कर्मप्रवाह अन्दर आत्मा में प्रवेश नहीं कर पाता है ।
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