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अध्यात्म-प्रवचन : भाग तृतीय ३. द्रव्य ४. अस्तिकाय
ज्ञाता ज्ञान से ज्ञेय को जानता है। प्रमाता प्रमाण से प्रमेय को जानता है । संसार की प्रत्येक वस्तु ज्ञेय है, क्योंकि वह ज्ञान का विषय है । जो ज्ञान का विषय होता है, वह तो अवश्य ज्ञेय होता है। जैसे घट, पट और भवन आदि जड़ वस्तु तथा मनुष्य, पशु एवं पक्षी आदि चेतन वस्तु । यह संसार जड-चेतनात्मक है । अतः ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान और ज्ञप्ति-इन चारों को समझना एवं जानना आवश्यक है।
ज्ञाता जीव है, ज्ञान उस का गुण है, ज्ञेय जड़-चेतन वस्तु है। ज्ञप्ति ज्ञान रूप करण का फल है। न्याय-शास्त्र में, इस तथ्य को प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय और प्रमा कहा गया है। जीव प्रमाता है, प्रमाण उसका गुण है, जगत को जड़-चेतन वस्तु प्रमेय है। प्रमा, प्रमाण रूप करण का फल है । न्याय-शास्त्र का नियम है, कि प्रमेय की सिद्धि प्रमाण के आधीन होती है । अतएव प्रत्येक सम्प्रदाय की अपनी ज्ञान-मीमांसा, अपनी प्रमाणमीमांसा और अपनी तत्त्व-मीमांसा होती है। सबके ज्ञेय और प्रमेयों की संख्या भी अलग-अलग होती है । जैन दर्शन में भी अपनी प्रमाण-व्यवस्था और प्रमेय व्यवस्था है। जैन ग्रन्थों में, पदार्थ और अर्थ, दोनों का एक अर्थ है । परन्तु अधिकतर तत्त्व और द्रव्य का प्रयोग उपलब्ध होता है। अस्तिकाय शब्द का बहुत कम प्रयोग देखा जाता है। वैशेषिक दर्शन में सप्त पदार्थ प्रसिद्ध हैं । मीमांसा दर्शन में अर्थ शब्द का तथा सांख्य में तत्त्व शब्द का प्रयोग है। अध्यात्म-शास्त्र :
अध्यात्म-शास्त्र में, नव पदार्थों का वर्णन व्यवहार नय और निश्चय नय की दृष्टि से किया गया है । आगम वाङमय में व्यवहार और निश्चय, दोनों का उल्लेख उपलब्ध है । किन्तु बाद के कुछ जैन आचार्यों ने व्यवहार की अपेक्षा निश्चय पर अधिक बल दिया है। उन्होंने अपने यूग की स्थिति, स्थान और काल को देखकर, वैसा किया होगा । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर तथा आचार्य कुन्द कुन्द, इस विषय में प्रमुख माने जाते हैं । दोनों में अन्तर यही है, कि एक तार्किक है, दूसरे आध्यात्मिक हैं। अध्यात्म दृष्टि से नव पदार्थ का वर्णन इस प्रकार हैजीव:
व्यवहार नय से जो शुभ एवं अशुभ कर्मों का कर्ता भी है, और
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