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________________ जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा ४३ पर्याय को प्राप्त होता है । इसलिए जीव के बाद अजीव का कथन किया है । जीव और अजीव के निमित्त से ही आस्रव होता है । अतः दोनों के बाद आस्रव कहा गया है, आस्रव के बाद बन्ध होता है । बन्ध को रोकने वाला संवर है । जो जीव आगामी कर्मों का संवर कर लेता है, उसके पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती है । निर्जरा के बाद ही मोक्ष होता है । अतएव सबके अन्त में, मोक्ष होता है । नव तत्त्वों के अवान्तर भेद : तत्त्व १. जोव २. अजीव ३. पुण्य ४. पाप ५. आस्रव ६ सवर ७. निर्जरा 5. बन्ध ६ मोक्ष भेद १४ १४ ४२ ८२ ४२ ५७ १२ ४ इन नव तत्त्वों में, जीव और अजीव ये दो ज्ञेय हैं। केवल जानने के योग्य हैं । इनको जानो और समझो। इनके स्वरूप को तथा लक्षण को जानो। ये दोनों प्राप्ति एवं अप्राप्ति के विषय नहीं हैं, केवल ज्ञप्ति के विषय हैं । अतएव ये दोनों ज्ञेय मात्र हैं । नव तत्त्वों में पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध-- ये चारों हेय हैं । छोड़ने के योग्य हैं, त्यागने के योग्य हैं । इनके परित्याग में, आत्मा का कल्याण हैं । इनके परिग्रह में अकल्याण है । अतः इनको दूर कर दो । नव तत्त्वों में संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये तीनों , उपादेय हैं । ग्रहण करने के योग्य हैं । इनको जीवन में उतारने का सतत प्रयास करते रहो । यही है, साधक की साधना का मूल बीज । आस्रव से संवर, संवर से निर्जरा और अन्त में लक्ष्यभूत मोक्ष । न्याय - शास्त्र में : न्याय - शास्त्र में, ज्ञातव्य वस्तु का विषय विभाग इस प्रकार किया गया है १. पदार्थ २. तत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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