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अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
७. निर्जरा अंशतः कर्म का क्षय ।
८. बन्ध
६. मोक्ष
जैन दर्शन के अनुसार मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है-अनन्त एवं अव्याबाध रूप सुख उसकी प्राप्ति समस्त कर्मों के सर्वथा क्षय से होती है । मोक्ष में न जन्म है, और न मरण है । किसी प्रकार की बाधा वहाँ है, नहीं । वहाँ तो एकान्त सुख ही सुख है । अतः अध्यात्म साधना के लिए चार तत्त्व आवश्यक हैं
जीव और कर्म का सम्बन्ध | कर्म का आत्मा से सर्वथा क्षय ।
१. मोक्ष
२. मोक्ष उपाय
३. बन्ध
बन्ध दुःख रूप है |
४. बन्ध हेतु का अभाव उसके कारण को दूर करो ।
४. बन्ध
५. संवर
६. निर्जरा
७. मोक्ष
मोक्ष के स्वरूप को समझो ।
मोक्ष के साधनों का विचार ।
सप्त तत्त्व :
जैन परम्परा के ग्रन्थों में तत्व का वर्गीकरण, सप्त तत्व और पदार्थ के रूप में भी होता रहा है । आगमों में नव पदार्थ एवं नव तत्व की परंपरा प्रसिद्ध है, लेकिन दार्शनिक ग्रन्थों में सप्त तत्व प्रख्यात हैं
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१. जीव २. अजीव
३. आस्रव
कुछ ग्रन्थों में सप्त तत्त्व का कथन प्रधानतया किया गया है । क्योंकि पुण्य और पाप - दोनों ही मोक्ष की साधना में उपयोगी नहीं हैं। दोनों बन्धन रूप होते हैं । आस्रव में भी इनकी गणना की जाती है। जैसे कि शुभ बन्ध और अशुभ बन्ध । शुभ आस्रव और अशुभ आस्रव । सात तत्त्वों में जीव और अजीव ज्ञेय हैं, आसव और बन्ध हेय हैं, संवर, निर्जरा और मोक्ष उपादेय तत्त्व माने जाते हैं ।
सप्त तत्त्वों का क्रम :
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संसार और मोक्ष जीव के होते हैं । अजीव के नहीं होते । अतः सर्वप्रथम जीव तत्त्व कहा है। अजीव के निमित्त से ही जीव, संसार या मोक्ष
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