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________________ ४२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय ७. निर्जरा अंशतः कर्म का क्षय । ८. बन्ध ६. मोक्ष जैन दर्शन के अनुसार मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है-अनन्त एवं अव्याबाध रूप सुख उसकी प्राप्ति समस्त कर्मों के सर्वथा क्षय से होती है । मोक्ष में न जन्म है, और न मरण है । किसी प्रकार की बाधा वहाँ है, नहीं । वहाँ तो एकान्त सुख ही सुख है । अतः अध्यात्म साधना के लिए चार तत्त्व आवश्यक हैं जीव और कर्म का सम्बन्ध | कर्म का आत्मा से सर्वथा क्षय । १. मोक्ष २. मोक्ष उपाय ३. बन्ध बन्ध दुःख रूप है | ४. बन्ध हेतु का अभाव उसके कारण को दूर करो । ४. बन्ध ५. संवर ६. निर्जरा ७. मोक्ष मोक्ष के स्वरूप को समझो । मोक्ष के साधनों का विचार । सप्त तत्त्व : जैन परम्परा के ग्रन्थों में तत्व का वर्गीकरण, सप्त तत्व और पदार्थ के रूप में भी होता रहा है । आगमों में नव पदार्थ एवं नव तत्व की परंपरा प्रसिद्ध है, लेकिन दार्शनिक ग्रन्थों में सप्त तत्व प्रख्यात हैं ―――― १. जीव २. अजीव ३. आस्रव कुछ ग्रन्थों में सप्त तत्त्व का कथन प्रधानतया किया गया है । क्योंकि पुण्य और पाप - दोनों ही मोक्ष की साधना में उपयोगी नहीं हैं। दोनों बन्धन रूप होते हैं । आस्रव में भी इनकी गणना की जाती है। जैसे कि शुभ बन्ध और अशुभ बन्ध । शुभ आस्रव और अशुभ आस्रव । सात तत्त्वों में जीव और अजीव ज्ञेय हैं, आसव और बन्ध हेय हैं, संवर, निर्जरा और मोक्ष उपादेय तत्त्व माने जाते हैं । सप्त तत्त्वों का क्रम : Jain Education International संसार और मोक्ष जीव के होते हैं । अजीव के नहीं होते । अतः सर्वप्रथम जीव तत्त्व कहा है। अजीव के निमित्त से ही जीव, संसार या मोक्ष For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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