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अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय
बन्ध :
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नवीन कर्मों का ग्रहण करके उनका जीवों के साथ संबद्ध हो जाना, बन्ध है । पुरातन कर्मों का नवीन कर्मों का बन्ध होता है, लेकिन जीव उनसे बंध जाता है । यह बन्ध कैसे होता है । जैसे नीर और क्षीर परस्पर मिल करके एकमेक हो जाते हैं । जीव और कर्म भी परस्पर मिल करके एकदूसरे से संबद्ध हो जाते हैं । इसमें आत्मा स्वतन्त्र नहीं रहता । यही बन्ध है ।
निर्जरा :
जिस क्रिया से अथवा जिस उपाय से आत्म-प्रदेशों के साथ बद्ध कर्म दलिक अथवा कर्म परमाणु एक देश से अंश रूप से आत्मा से अलग हो जाता है, वह निर्जरा है । तप के द्वारा कर्म आत्मा से पृथक् हो जाता है । अतः तप निर्जरा है । तप को निर्जरा का कारण भी कहा जाता है ।
मोक्ष :
कर्म,
मोक्ष आत्मा के शुद्ध स्वरूप को कहते हैं । आत्म-प्रदेशों से कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाना मोक्ष है । कर्म फल से शून्य हो जाने पर, वह मुक्त हो जाता है । कर्म के तीन रूप होते हैं— संचित कर्म, क्रियमाण और प्रारब्ध कर्म । तीनों का क्षय हो जाने पर ही मोक्ष होता है । अत वह आत्मा का शुद्ध स्वरूप कहा जाता है ।
मोक्ष के उपाय :
तीन हैं
मोक्ष के साधन को उपाय अथवा मार्ग कहा गया है। उपाय
१. सम्यग्दर्शन
२. सम्यग्ज्ञान
३. सम्यक् चारित्र
जैन दर्शन में नव पदार्थ है, न कम और न अधिक । जीव जिन भाषित तत्वों पर जो श्रद्धान करता है, वह दर्शन है । तत्वों का जो बोध करता है, वह ज्ञान है । व्रतों का ग्रहण और पालन करना ही चारित्र होता' है । अत: इन तीनों को मोक्ष का उपाय, मार्ग और साधन कहा जाता है : तीनों को मिलाकर मोक्ष मार्ग कहा है ।
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