SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय २. पुद्गल ३. धर्म ४. अधर्म ५. आकाश ६. काल जैन दर्शन के अनुसार जगत में दो तत्त्व प्रधान हैं-जीव और अजीव । जीव के मुख्य रूप में दो भेद हैं-संसारी और मुक्त । अजीव के भी मुख्य भेद दो हैं -रूपी और अरूपी । मूर्त और अमूर्त । पुद्गल रूपी एवं मूर्त है । शेष चार अजीव अरूपी तथा अमूर्त हैं । जिसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श होता है, उसको रूपी वा मूर्त कहा जाता है। ये चारों गुण पूदगल में उपलब्ध होते हैं । अतः पुद्गल रूपी है, शेष चार अरूपी हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल में, उक्त चार गुण नहीं होते । अतः वे अरूपी हैं। अरूपी का प्रत्यक्ष नहीं होता, रूपी का ही प्रत्यक्ष होता है। भौतिक विज्ञान : अजीव तत्त्व के सम्बन्ध से ही जड़ विज्ञान का अस्तित्व है । वेदान्त में माया को माना गया है, लेकिन उसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। वह एक भ्रम है, मिथ्या है, कल्पना-प्रसूत है। माया की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, जबकि अजोव तत्त्व स्वतन्त्र है, स्वाधीन है, अनादि है, और अनन्त है । उसका अस्तित्व अपने कारणों से है, जीव के कारणों से नहीं । सांख्य दर्शन की प्रकृति स्वतन्त्र, अनादि है, और अनन्त भी है, लेकिन वह एक ही है। अजीव तत्त्व एक नहीं है, उसके पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । न्याय वैशेषिक दर्शन में स्वीकृत परमाणु भी जैन दर्शन का परमाणु काफी भिन्न है । क्योंकि वहाँ पर पृथ्वी का परमाणु सदा पृथ्वी का ही रहता है, और जल का परमाणु कभी जल का और कभी अग्नि का भी हो सकता है। बौद्धों का पुद्गल भी जनों के पुद्गल से मेल नहीं खाता । मीमांसा दर्शन में तत्त्व पर बहुत कम विचार किया है। मुख्य विचार कर्म का है । जैन दर्शन में तत्त्व विचार बहु आयामी, विस्तृत और गहन किया गया है। विज्ञान और पुद्गल : पाश्चात्य दर्शन में और विशेषतः विज्ञान में जिसको Matter कहा गया है, जैन दर्शन में उसको पुद्गल कहा जाता है। पुद्गल के चार गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy