SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा ३१ गति, तिथंच गति, मनुष्य गति और देव गति । नरकों की संख्या सात है । देवलोकों की संख्या छब्बीस मानी है। मनुष्य असंख्यात है। तिर्यच असंख्यात और अनन्त भी हैं। जोव एकेन्द्रिय में लेकर पंचेन्द्रिय तक माने हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीव अपने कर्म के अनुसार ही परलोक में जाता है । अतएव लोक-परलोक दोनों ही मान्य हैं। आज का विज्ञान भी परा-विद्या के द्वारा मृत आत्माओं से सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास कर रहा है। वस्तुतः परा-विद्या का अर्थ परलोक की आत्माओं ने सम्बन्ध स्थापित करना । भूत-प्रेतों का कथा साहित्य भी पर-लोक को सिद्ध करने का एक साधन है। बहुत-से लोग अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाते हैं। विज्ञान और तत्त्व : प्रकृति और उसकी शक्ति की खोज ही विज्ञान है। विज्ञान भौतिक तत्त्वों का अनुसन्धान करता है । चेतन तत्त्व की खोज उसने नहीं की । यदि की भी है, तो बहुत कम । लेकिन भारतीय दर्शनों ने जीव और जड़ दोनों का अनुसन्धान किया है । आज के विज्ञान ने परमाणु की और उसकी शक्ति का गहन अनुसन्धान किया है, और उसका प्रयोग भी किया है । विज्ञान विनाशकारी भी है, और मंगलकारी भी। विज्ञान को असत्य नहीं कहा जा सकता । क्योंकि उसका आधार अनुसन्धान और प्रयोग रहा है। विज्ञान प्रत्यक्ष से इन्कार नहीं करता, लेकिन वह परोक्ष को अस्वीकार करता है। पञ्चभूत को मानता है, जीव और आत्मा को नहीं। चेतन सत्ता प्रत्यक्ष नहीं है। अतः वह चेतन को मन और मस्तिष्क कहकर मौन हो जाता है। जैन दर्शन मन तथा मस्तिष्क को भौतिक मानता है, चेतन, जीव एवं आत्मा नहीं। जैन दर्शन जीव, जगत और परमात्मा तीनों की स्वतन्त्र सत्ता को मानता है। जैस जीव की सत्ता है, वैसे अजीव की भी है। यह जगत षड़ द्रव्यात्मक है। इनमें जीव चेतन है, शेष पाँच अचेतन कहे गए हैं। षड् द्रव्य : __ जैन दर्शन में स्वीकृत षड् द्रव्यों का उल्लेख मूल आगमों में, उसके व्याख्या ग्रन्थों में तथा उत्तरकालीन ग्रन्थों में भी है। षड् द्रब्दों की परिगणना इस प्रकार है १. जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy