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________________ २८ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय साधना क्या है ? ज्ञेय को समझो, बिना समझे साधना नहीं हो सकती । भगवान् ने कहा है - जीव और अजीव को समझो। तभी आचार का पालन कर सकते हो। जो उपादेय है, उसे ग्रहण करो । उसका परिपालन करो। संवर और निर्जरा की साधना से मोक्ष को उपलब्धि होती है । मोक्ष होता है, निर्जरापूर्वक और निर्जरा होती है संवर पूर्वक । हेय को छोड़ना आवश्यक है। अहितकर, अकल्याणकर तथा अक्षेमंकर को छोड़ना होगा। क्योंकि उससे संसारी जीव का बन्धन अधिक सुदृढ़ हो जाता है । वह कभी मुक्त नहीं हो सकता । कर्म संस्कार का रुक जाना, संवर है । कर्म संस्कार का अंशतः जीव से पृथक हो जाना, निर्जरा है। कर्म संस्कार का जीव से सर्वांशतः पृथक् हो जाना, मोक्ष है। कर्म जिन कारणों से जीव के बंधते हैं, वे आस्रव हैं। जीव और अजीव का परस्पर एकाकार सम्बन्ध हो जाना हो तो वस्तुतः बन्ध कहा गया है। बन्ध से विमुक्त होना ही अध्यात्म जीवन है। जीव और कर्म : . कर्म एक पारिभाषिक शब्द है, उसका सामान्य अर्थ होता है, क्रिया। वेद से लेकर, व्राह्मण काल तक वैदिक धर्म में यही अर्थ मान्य रहा है । यज्ञ, याग और होम क्रियाओं को कर्म संज्ञा प्रदान की। वैदिक लोगों की अवधारणा थी, यज्ञ कर्म से देवता प्रसन्न होते हैं। प्रसन्न होकर, वे मनोकामना को सम्पूति करते हैं, जीवन को सम्पन्न करते हैं, जीवन को सुखी बनाते हैं। जैन दर्शन में कर्म का अर्थ, क्रिया तो रहा ही, परन्तु उससे आगे भी उसका अर्थ होता है । कर्म के दो भेद हैं - भाव कर्म और द्रव्य कर्म । भाव कर्म का अर्थ होता है-जीव की क्रिया द्वारा जो अजीव द्रव्य पुद्गल आत्मा के साथ संबद्ध होकर, आत्मा को बाँध लेता है, वह द्रव्य कर्म होता है । जीव के शुभ-अशुभ परिणाम भाव कर्म होते हैं। जीव की क्रिया भाव कर्म और उसका फल द्रव्य कर्म । भाव से द्रव्य एवं द्रव्य से भाव, यह एक चक्र है । क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कषाय तो आत्मा के आभ्यन्तर परिणाम हैं, ये ही तो भाव कर्म हैं। राग, द्वेष और मोह को भी भाव कर्म कहा गया है । योग और कषाय से कर्म का बन्ध होता है। न्याय-वैभाषिक दर्शन में, राग, द्वष और मोह-इन तोन को दोष माना है। आत्मा की प्रवृत्ति तीन दोषों के कारण होती है। प्रवृत्ति से धर्म और अधर्म की उत्पत्ति होती है। धर्म और अधर्म को संस्कार कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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