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जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा २६ धर्म और अधर्म को अदष्ट भी कहा जाता हैं। दोष से सस्कार, संस्कार से जन्म, जन्म से दोष और फिर दोष से संस्कार । यह परम्परा बीज तथा अंकुर के समान है, एक चक्र जैसा है ।
सांख्य-योग के अनुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश-पाँच क्लेश हैं। इन पांचों से क्लिष्ट वृत्ति उत्पन्न होती है, चित्त व्यापार की उत्पत्ति होती है। उससे धर्म-अधर्म संस्कार उत्पन्न होते हैं । क्लेश को भाव कर्म, वृत्ति को योग और संस्कार को द्रव्य कर्म कहा जाता है । संस्कार को कहीं पर कर्म, कहीं पर वासना और कहीं पर अपूर्व कहा गया है।
बौद्ध दर्शन की मान्यता है, कि जीवों की विभिन्न दशा कर्मकृत है। बौद्ध लोभ और मोह को कर्म की उत्पत्ति का कारण मानते हैं। संसार का चक्र अनादिकालीन है। राजा मिलिंद ने आचार्य नागसेन से पूछा-जीव के द्वारा किया गया कर्म कहाँ रहता है। आचार्य ने कहा कि दिखलाया नहीं जा सकता, कि कर्म कहाँ रहते हैं। विशुद्धि-मार्ग ग्रन्थ में कर्म को सूक्ष्म कहा है । बौद्ध दर्शन में कर्म को वासना कहा गया है।
मीमांसा दर्शन में कहा है, कि यज्ञ रूप अनुष्ठान से अपूर्व उत्पन्न होता है । यही अनुष्ठान का फल प्रदान करता है, क्योंकि यज्ञ कर्म का स्वर्ग रूप फल अपने सूक्ष्म रूप में, तत्काल उत्पन्न होकर बाद में काल का परिपाक होने पर प्रकट होता है । वेदान्त के अनुसार ईश्वर कर्म के अनुरूप जीव को फल प्रदान करता है। कर्म, संस्कार, वासना, माया और अपूर्व ये शब्द प्रायः एकार्थक शब्द हैं। अतः आस्तिक दर्शनों को कर्म की सत्ता में अवश्य ही आस्था रखनी होती है। बन्ध और मोक्ष : ___ आत्मा की सत्ता में आस्था रखने वाले भारतीय दर्शनों ने बन्ध और मोक्ष को स्वीकार किया है । अनात्मवादी बौद्ध दर्शन ने भी बन्ध और मोक्ष को माना है । समस्त दर्शनों ने अविद्या, मोह, अज्ञान एवं मिथ्यादर्शन तथा मिथ्या ज्ञान को बन्ध का कारण माना है। विद्या तथा तत्त्व-ज्ञान को मोक्ष का हेतु कहा है।
बन्ध क्या है ? जीव का शरीर के साथ संयोग ही आत्मा का बन्ध है । अतः जड़ और जीव का विशिष्ट संयोग ही बन्ध कहलाता है। आत्मा
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