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जैन दर्शन की तत्त्व-मीमांसा
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न्याय-वैशेषिक दर्शन जीव और जड़, दोनों को स्वीकार करता है । पञ्चभूतों को और आत्मा को भी मानता है । आत्मा के दो भेद हैंजीवात्मा और परमात्मा । आत्मा को ज्ञान का अधिकरण मानता है, लेकिन मुक्त दशा में, आत्मा को ज्ञान- शून्य मानता है । ज्ञान शून्य तो जड़ ही होता है, चेतन नहीं । मोक्ष चेतन का होता है, जड़ का कभी नहीं होता ।
मीमांसा दर्शन भी जीव और जगत् दोनों को अनादि एवं अनन्त मानता है । मोक्ष की मान्यता में उसे विश्वास नहीं, यज्ञ रूप कर्म में उसकी आस्था है, जिसका फल स्वर्ग होता है । उसके मन में, यज्ञ, तप और दान रूप कर्म से स्वर्ग के सुख मिलते हैं । भौतिक सुखों की साधना है, अध्यात्म नहीं ।
जैन दर्शन के अनुसार जीव के चैतन्य का अनुभव, में ही होता है । अतः जीव स्व- देह परिमाण हो जाता है । जीव को पूर्व जीवन छोड़ कर, उत्तर जीवन में जाना-आना पड़ता है । जीव की गति में धर्म-द्रव्य सहकारि कारण होता है, और स्थिति में अधर्म द्रव्य सहकारि होता है । जीव और अजीव सब आकाश में रहते हैं । क्योंकि अवकाश देना, आकाश का स्वभाव है । जीव और कर्म का अनादि कालीन सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध ही बन्ध है । जीव के साथ पुद्गल का बन्ध होता है । जीव और अजीव में, निरन्तर जो परिवर्तन होता रहता है, वह काल के बिना कभी भी नहीं हो सकता । अतः काल भी द्रव्य है । साधना के मूल तत्व :
साधना की दृष्टि से सप्त तत्त्व तथा नव पदार्थ होते हैं । सप्त तत्त्व ये हैं - जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इनमें आस्रव और बन्ध - संसार के हेतु हैं । संवर और निर्जरा - मोक्ष के कारण हैं । इनमें पुण्य और पाप को परिगणित करने से नव पदार्थ हो जाते हैं । पुण्य और पाप का अन्तर भाव, आस्रव एवं बन्ध में हो जाता है । आस्रव के दो भेद हैं- शुभ आस्रव और अशुभ आस्रव । बन्ध के भी दो भेद हैं- शुभ बन्ध और अशुभ बन्ध । शुभ पुण्य है, अशुभ पाप है । आस्रव, बन्ध, पुण्य और पाप - ये चार हेय तत्त्व हैं। क्योंकि संसार के कारण हैं । संवर, निर्जरा और मोक्ष- ये तीन उपादेय तत्त्व हैं। क्योंकि इनसे आत्मा की विशुद्धि होती है । जीव और अजीव - ये दोनों ज्ञेय हैं ।
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एकमात्र शरीर संसार- दशा में
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